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________________ ( 232 ) उत्तर-(१) जो कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना का स्वामी हो (2) ऐन्द्रिय सुख और ऐन्द्रिय ज्ञान मे जिसकी उपादेय वुद्धि हो (3) वस्तु स्वरूप से अज्ञात हो (4) सातावेदनीय के कार्य मे जिसकी अत्यन्त रुचि हो (5) हर समय पर के ग्रहण का अत्यन्त अभिलापी हो (6) अपने को पर्याय जितना ही मानकर उसी का सवेदन करने वाला हो (7) केवल अज्ञानमय भावो का उत्पादक हो। ये मोटे-मोटे लक्षण है / वास्तव मे तो 'एक यज्ञान चेतना' ही मिथ्यादृष्टि का लक्षण है। उसके पेट मे यह सब कुछ मा जाता है। प्रश्न २१७-चेतना के पर्यायवाची नाम बताओ? उत्तर-(क) चेतना, उपलब्धि, प्राप्ति, सवेदन, सचेतन, अनुभवन, अनुभूति अथवा आत्मोपलब्धि इन शब्दो का एक अर्थ / चाहे वह सवेदन ज्ञानरूप हो या अज्ञानरूप / ये शब्द सामान्य रूप से दोनो मे प्रयोग होते है (ख) शुद्ध चेतना ज्ञानचेतना, शुद्धोपलब्धि शुद्धात्मोपलब्धि ये पर्यायवाची है। ज्ञानी के ही होती है। (ग) अशुद्धचेतना, अज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना, अशुद्धोपलब्धि ये पर्यायवाची हैं / अज्ञानी के ही होती है। प्रश्न २१८-ज्ञान चेतना का क्या स्वरूप है ? उत्तर-ज्ञान चेतना मे शुद्ध आत्मा अर्थात् ज्ञानमात्र का स्वाद आता है। यह ज्ञान की सम्यग्ज्ञान रूप अवस्थान्तर है। यह शुद्ध ही होती है / इससे कर्मबन्ध नहीं होता। (664, 665) प्रश्न २१६-अज्ञानचेतना का स्वरूप बताओ? उत्तर-अपने को सर्वथा रागद्वेष या सुख दुख रूप अनुभव करना अज्ञान चेतना है, जो आत्मा स्वभान से ज्ञायक था वह स्वय वेदक बन कर अज्ञानभाव का सवेदन करता है। इसने ज्ञान का रचमात्र सवेदन नही है। यह सब जगत के पायी जाती है। अशुद्ध ही होती है और इससे वन्ध ही होता है। (976)
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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