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________________ ( 206 ) युगल भिन्न-भिन्न सर्वथा जुदा माने नावें तो मिथ्या है और चारो यदि परस्पर के मैत्रीभाव से सम्मिलित मानकर मुख्य गौण की विधि से प्रयोग किये जायें तो सम्यक हैं। प्रश्न १२४-परस्पर सापेक्षता का या मुख्य गौण का रहस्य क्या उत्तर-परस्पर सापेक्षता का यह रहस्य है कि आप वस्तु को जिस धर्म से देखना चाहे सारी की सारी वस्तु आपको उसी रूप दृष्टिगत होगी यह नही कि उसका कुछ हिस्सा तो आपको एक धर्म रूप नजर आये और दूसरा हिस्सा दूसरे रूप जैसे नित्यानित्यात्मक वस्तु मे नित्य अनित्य दोनो धर्म इस प्रकार परस्पर सापेक्ष हैं कि त्रिकाली स्वभाव की दृष्टि से वस्तु देखो तो सारी स्वभाव रूप और परिणाम की दृष्टि से वस्तु देखो तो सारी परिणाम रूप नजर आयेगी। अब तुम अपने को चाहे जिस रूप देख लो। ज्ञानी अपने को सदैव नित्य अवस्थित स्वभाव की दृष्टि से देखता है / अज्ञानी जगत् अपने का सदा परिणाम दृष्टि से देखता है / क्योकि उसमे दोनो धर्म रहते हैं इसलिए जिस रूप देखना चाहो उसी रूप दीखने लगती है। इसी को मुख्य गौण कहते हैं। निरपेक्ष मानने वालो को वस्तु सर्वथा एक रूप नजर आयेगी। यही बात अन्य चार युगलो मे भी है। प्रश्न १२५-सर्वथानिरपेक्षपने का निषेध कहाँ-कहाँ किया है ? उत्तर--(१) सामान्य और विशेष दोनो के निरपेक्षपने का निषेध तो 16 से 16 तक तथा 286 से 308 तक किया है। (2) तत अतत् के सर्वथा निरपेक्ष का निषेध 332 मे किया है (3) सर्वथा नित्य का निषेध 423 से 428 तक तथा सर्वथा अनित्य का निषेध 426 से 432 तक किया है (4) सर्वथा एक का निषेध 501 मे और सर्वथा अनेक का निषेध 502 मे किया है। प्रश्न १२६-परस्पर सापेक्षता का समर्थन कहां-कहाँ किया है ? उत्तर-(१) सामान्य विशेष की सापेक्षता न० 15, 17, 20,
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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