SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 160 ) कही तक कहते चलिये, जगत मे कोई ऐसा शब्द नही जो वस्तु के पूरे स्वरूप को एक शब्द मे कह दे। इसलिये जो आप कहेगे वह विशेषण विशेप्य रूप-भेद रूप पडेगा। जब आप भेद रूप से सब वस्तु का निरूपण कर चुकेगे और फिर यह दृष्टि आपके सामने आयेगी तो आप झट कहेगे कि ऐसा नही' इसका अर्थ है भेद रूप नहीं किन्तु अखण्ड / इसको सस्कृत मे कहते हैं 'न इति' सधि करके कहते हैं 'नेति'। 'नेति' का यह अर्थ नही कि कुछ नही किन्तु यह अर्थ है कि भेद रूप कुछ नही किन्तु अभेद / शब्द रूप कुछ नही किन्तु अनुभव गम्य-इसलिये इसका नाम रक्खा 'न इति दृष्टि' या 'नेति दृष्टि'। . (ड) जैन धर्म मे भेद को अशुद्ध भी कहते हैं और अभेद को शुद्ध कहते हैं / इसलिये इसका नाम है शुद्ध दृष्टि / (च) जैन धर्म मे अखण्ड को द्रव्य कहते हैं और आप श्लोक न० 26 मे पढ़ चुके हैं कि अखण्ड के एक अश को पर्याय कहते हैं इसलिये इसका नाम है द्रव्य दृष्टि / द्रव्य शब्द का अर्थ अखण्ड दृष्टि / (छ) कभी इसको विशेष स्पष्ट करने के लिये शुद्ध और द्रव्य दोनो शब्द इकट्ठे मिलाकर बोल देते है तब इसका नाम होता है शुद्ध द्रव्य दृष्टि या शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि / शुद्ध दृष्टि भी इसी का नाम है, द्रव्य दृष्टि भी इसी का नाम है, शुद्ध द्रव्य दृष्टि भी इसी का नाम है / (ज) भेद को जैन धर्म मे विकल्प भी कहते है। विकल्प नाम राग का भी है, भेद का भी है। यहाँ भेद अर्थ इष्ट है। इसमे भेद नही है इसलिये इसका नाम है निर्विकल्प दृष्टि या विकल्पातीत दृष्टि / (झ) अभेद को सामान्य भी कहते हैं / इसलिये इसका नाम हुआ सामान्य दृष्टि / इस दृष्टि का वर्णन (13) सत् मे सामान्य विशेष का भेद नही है इसका वर्णन तो न० 758 मे किया है। (14) सत् मे नित्य अनित्य का भेद नही है इसका वर्णन 762 मे किया है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy