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________________ ( 186 ) परम आवश्यक है अन्यथा आप ग्रन्थ का रहस्य न पा सकेगे। A B दो व्यवहार दृष्टि C एक प्रमाण दृष्टि D एक द्रव्य दृष्टि / AB (1) राम अच्छा लडका है। यहाँ राम विशेष्य है और अच्छा उसका विशेषण है। जिसके बारे मे कुछ कहा जाय उसे विशेष्य कहते है और जो कहा जाय उसे विशेषण कहते है। इसी प्रकार यहा 'सत' विशेष्य है और चार युगल अर्थात् आठ उसके विशेषण हैं। सत् सामान्य रूप भी है और विशेप रूप भी है। अत यह कहना कि 'सत् सामान्य है' यहा सत् विशेष्य है और सामान्य उसका विशेषण है / इस वाक्य ने सत् के दो खण्ड कर दिये, एक सामान्य एक विशेष / उसमे से सामान्य को कहा / सो जो विशेष्य विशेषण रूप से कहे वह अवश्य सत को भेद करता है जो भेद करे उसको व्यवहार नय कहते हैं / कौन सी व्यवहार नय कहते है ? तो उत्तर देते हैं कि जिस रूप कहे वही उस नय का नाम है / यह सामान्य व्यवहार नय है। (2) फिर हमारी दृष्टि विशेष पर गई / हमने कहा 'सत् विशेष है' यहाँ सत् विशेष्य है और विशेष उसका विशेषण है यह विशेष नामवाली व्यवहार नय है / जिस रूप कहना हो वह अस्ति दूसरा नास्ति / अस्ति अर्थात मुख्य, नास्ति अर्थात गौण / इनका वर्णन न० 756, 757 मे है / सत रूप देखना सामान्य, जीव रूप देखना विशेष। अब नित्य अनित्य नय को समझाते हैं। (3) आपकी दृष्टि त्रिकाली स्वभाव पर गई। आपने कहा कि 'सत् नित्य है' / सत् विशेष्य है और नित्य उसका विशेपण है / यह सत् मे भेद सूचक नित्य नामा व्यवहार नय हुई। इसका वर्णन न० 761 मे है। (4) फिर आपकी दृष्टि वस्तु के परिणमन स्वभाव पर (परिणाम पर, पर्याय पर) गई आपने कहा 'सत अनित्य है' यहाँ सत् विशेष्य है और अनित्य उसका विशेपण है। यह अनित्य नामा व्यवहार नय है। इसका वर्णन न० 760 मे है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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