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________________ ( 184 ) क्या रहा है और हो क्या रहा है। भाई जब तक परिणति स्वरूप को न ग्रहे ये तो पाखण्ड है। कोरा ससार है। पशुवत् क्रिया है। छह ढाले मे रोज तो पढता है 'मुनिव्रतधार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो' वह तो शुद्ध व्यवहारी की दशा कही / यहाँ तो व्यवहार का भी पता नहीं और समभता है अपने को मोक्ष का ठेकेदार या समाज मे महान ऊँचा। मोक्षमार्ग में नियम है कि विकल्प (राग) ससार है और निर्विकल्प (वीतरागता) मोक्षमार्ग है / अब वह राग कैसे मिटे और वीतरागता कैसे प्रगट हो ? उसका विचार करना है। देखिये विषय कषाय का / राग तो है ही ससार कारण / इसमें तो द्वैत ही नही है जिनका पिण्ड अभी उससे जरा भी नही छुटा वे तो करेगे ही क्या ? ऐसे अपात्रो की तो यहाँ बात ही नही है। यहाँ तो मुमुक्षु का प्रकरण है। सो उसे कहते है कि भाई यह तो ठीक है कि वस्तु भेदाभेदात्मक ही है पर भेद मे यह खराबी है कि उसका अविनाभावी विकल्प उठता है और वह आस्रव बन्ध तत्त्व है। इसलिये यह भेद को विषय करने वाली व्यवहारनय तेरे लिये हितकर नही है। अभेद को बतलाने वाली जो शुद्ध द्रव्याथिक नय है उसका विपय वचनातीत है। विकल्पातीत है / पदार्थ का ज्ञान करके सतुष्ट हो जा। भेद के पीछे मत पड़ा रह / यह भी विषय कषाय की तरह एक बीमारी है। यह तो केवल अभेद वस्तु पकडाने का साधन था। सो वस्तु तूने पकड ली। अब 'व्यवहार से ऐसा है' 'व्यवहार से ऐसा है' अरे इस रागनी को छोड और प्रयोजनभूत कार्य मे लग। वह प्रयोजनभूत कार्य क्या है ? सुन | हम तुझे सिखा आये हैं कि प्रत्येक सत् स्वतन्त्र है। उसका चतुष्टय स्वतन्त्र है इसलिए पर को अपना मानना छोड। दूसरे जब वस्तु का परिणाम स्वतन्त्र है तो तू उसमे क्या करेगा ? अगर वह तेरे की हुई परिणमेगी तो उसका परिणमन स्वभाव व्यर्थ हो जायेगा और जो शक्ति जिसमे है ही नही वह दूसरा देगा भी कहाँ से ? इसलिये मैं इसका ऐसा परिणमन करा दूं या यह यूँ परिणमे तो ठीक / यह पर की कर्तृत्व बुद्धि छोड। तीसरे
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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