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________________ ( 182 ) करके स्वभाव को मुख्यता से कहे उसे द्रव्यदृष्टि, अन्वयदृष्टि, वस्तु दृष्टि, निश्चय दृष्टि, सामान्य दृष्टि आदि नामो से कहा जाता है और जो दृष्टि स्वभाव को गौण करके परिणाम को मुख्यता से कहे उसे पर्याय दृष्टि, अवस्था दृष्टि, विशेष दृष्टि आदि नामो से कहते हैं / जिसकी मुख्यता होती है सारी वस्तु उसी रूप दीखने लगती है। (65, 66, 67, 198) इस लेख मे पहले निश्याभासी का खण्डन किया है फिर व्यवहाराभासी का खण्डन किया है फिर 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' समझाया है / इसका सार तत्व : यो तो आत्मा अनन्त गुणो का पिण्ड है पर मोक्षमार्ग की अपेक्षा तीन गुणो से प्रयोजन है। ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र / सबसे पहले जब जीव को हित की अभिलाषा होती है तो ज्ञान से काम लिया जाता है। पहले ज्ञान द्वारा पदार्थ का स्वरूप, उसका लक्षण तथा परीक्षा सीखनी पडती है। पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। अत पहले सामान्य पदार्थ का ज्ञान कराना होता है फिर विशेप का क्योकि जो वस्तु सत् रूप है वही तो जीव रूप है। सामान्य वस्तु को सत् भी कहते हैं। सो पहले आपको सत् का परिज्ञान कराया जा रहा है। सत् का आपको अभेदरूप, भेदरूप, उभयरूप हर प्रकार से ज्ञान कराया। इसको कहते हैं ज्ञानदृष्टि या पण्डिताई की दृष्टि / इससे जोव को पदार्थ ज्ञान होता चला जाता है और वह ग्यारह अग तक पढ लेता है पर मोक्षमागी रचमात्र भी नही बनता। यह ज्ञान मोक्षमार्ग मे कब सहाई होता है जव जीव का दूसरा जो श्रद्धागुण है उससे काम लिया जाय अर्थात् मिथ्यादर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया जाय। वह क्या है ? अनादिकाल की जीव की पर मे एकत्वबुद्धि है। अहकार ममकार भाव है। अर्थात् यह है सो मैं हूँ और यह मेरा है / तथा पर मे कर्तृत्वभोक्तृत्व भाव अर्थात मैं पर की पर्याय फेर सकता हूँ और मैं पर पदार्थ का भोग सकता है। इसके मिटने का नाम है सम्यग्दर्शन / वह कैसे मिटे /
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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