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________________ ( 138 ) प्रश्न २०७-कर्म जीव को दुःख देता है क्या यह बात सत्य है ? उत्तर-(१) विल्कुल झूठ है, क्योकि जडकर्म स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण वाला है। आत्मा स्पर्शादिक से रहित है। दोनो मे अत्यन्ताभाव है। (2) कर्म दु ख का कारण नही है औदयिक भाव दु ख का कारण है। (3) कर्म मे ज्ञान नही है जीव मे ज्ञान है / कर्मजड ज्ञानवत को दुखी करे-क्या कभी ऐसा हो सकता है ? कभी नही। (4) क्योकि चन्द्रप्रभु की पूजा मे आया है। कर्म विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई, अग्नि सहे घन घात, लोहे की संगति पाई // अर्थ :-कर्म वेचारा कौन ? (किस गिनती मे) भूल तो मेरी ही बडी है। जिस प्रकार अग्नि लोहे की सगति करती है तो उसे घनो के आघात सहना पडते हैं, उसी प्रकार यदि जीव कर्मोदय से युक्त हो तो उसे राग-द्वेषादि विकार होते है। (5) देव-गुरु-शास्त्र की पूजा मे भी आया है कि "जडकर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी" / प्रश्न २०८-क्या जीव को कर्म का उपशम, क्षयोपशम और उदय करना पड़ता है ? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि कर्म को अवस्था का कार्माणवर्गणा का कार्य है। कर्म एक कार्य है उसका कर्ता काणिवर्गणा है। जीव तथा दूसरी वर्गणाये नही है। प्रश्न २०९-छद्मस्थ का क्या अर्थ है ? उत्तर-छद=आवरण / स्थ-स्थिति / अर्थात आवरणवाली स्थिति हो उसे छद्मस्थ कहते है। प्रश्न २१०-छद्मस्थ के क्तिने भेद हैं ? उत्तर–साधक और बाधक यह दो भेद हैं-तीसरे गुणस्थान तक बाधक है और चौथे से १२वे गुणस्थान तक साधक है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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