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________________ ( १८ ) प्रश्न १३३--कोई तत्त्वनिर्णय ना होने मे कर्म का ही दोष निकाले, टो फ्या ठीक है। उत्तर-तत्वनिर्णय न करने में कर्म का कोई दोष नही है किन्तु जीर का ही दोष है । जो जीव कर्म का दोष निकालता है, वह अपना दोष होने पर भी कर्म पर दोप डालता है, वह अनीति है। जो सर्वज्ञ "भगवान की आज्ञा माने उसके ऐसी अनीति नही हो सकती है। जिसे पर्म करना अच्छा नहीं लगता, वह ऐसा झूठ बोलता है। जिसे मोक्ष सुन्ल की सच्ची अभिलापा हो, वह ऐसी झूठी युक्ति नहीं बनायेगा। [मोक्षमार्ग प्रकाशक] प्रश्न १३४-क्या करे, तो सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर नियम से मोक्ष हो ? उत्तर-(१) जीव का कर्तव्य तो तत्वज्ञान का अभ्यास ही है और उसी से स्वयमेव दर्शनमोह का उपशम होता है। दर्शनमोह के उपशमादिक मे जीव का कर्तव्य कुछ भी नही है। (२) तत्पश्चात “त्यों-त्यो जीव स्वसन्मुखता द्वारा वीतरागता मे वृद्धि करता है त्योल्यों शावकदशा, मुनिदशा प्रगट होती है। (३) उस दशा मे भी जीव अपने ज्ञायक स्वभाव मे रमणतारूप पुरुषार्थ द्वारा धर्म परिणति (श्रेणी) को बढाता है वहां परिणाम सर्वथा शुद्ध होने पर केवलज्ञान, किवलदर्शन और मोक्षदशारूप सिद्ध पद प्राप्त करता है। प्रश्न १३५-स्वभाव, पुरुषार्थ आदि पांचो समवाय किसमें लगते उत्तर-ससार मे जितने भी कार्य हैं उन सब मे यह पाँचो सम"बाय एक साथ लगते हैं। लेकिन यहाँ पर मोक्ष की बात है। प्रश्न १३६-ससार में जो कार्य हम करते हैं, क्या वह सब पुरु(मार्य से करते हैं? उत्तर-बिल्कुल नहीं। क्योकि -(१) धनादिक भी प्राप्ति मे 'आत्मा का वर्तमान पुरुषार्थ किंचित मात्र भी कार्यकारी नही है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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