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________________ ( ६३ ) असंख्यात कालद्रब्यों से मेरा किसी भी प्रकार का सम्बंध नही हैं ऐसा मैं भगवान प्रात्मा हूं। परन्तु अज्ञानी मानता है कि मैं सुबह उठता हूँ, मैं नहाता हूं. मैं शरीर का काम. पर के काम करता हूँ, आँख नाक, शरीर, हाथ, पाँव, मेरी मूर्ति है, शरीर के प्राकार को अपना आकार मानता है, पर वस्तु को अनुपम मानता है, मैं दूसरे जीवो का भला बुरा कर सकता हूँ, मै पद्गलों का. दाल, भात, पाच इन्डियों के भोग भोगता हूँ, मैं हल्का हूँ, मैं भारी हूं, मुझे मीठा अच्छा लगता है; मुझे खुशबू अच्छी लगती है. बदबू अच्छी नहीं लगती; मै आँखो से देखता हूँ, कानो से सुनता हूँ, धर्म द्रव्य मुझे चलाता है, अधर्म द्रव्य मुझे ठहराता है, आकाश मुझे जगह देता है, काल मुझे परिणमन कराता है आदि अज्ञानी मानता है। प्रश्न (२०१)-आप कहते हो एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से सम्बध नही है तो शास्त्रों मे क्यो लिखा है, कि-- (१) कम चक्कर कटाता है। (२) जीव पुद्गल का और पुद्गल जीव का उपकार करता है (३) धर्म द्रव्य जीव पुद्गल को चलाता आदि व्यवहार के कथन शास्त्रो में भरे पड़े है क्या यह बातें झूठी लिखी हैं ? उत्तर-असल बात कहने में नहीं आती है इसलिए जैसे किताबों की अलमारी बोलने में आता है वास्तव में तो अलमारी लकडी की है परन्तु उसमें किताब रखते हैं तो अलमारी किताबों की बोलने में प्राती हैं; उसी प्रकार
SR No.010118
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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