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________________ ( ६१ ) की क्रिया मे वास्तव मे जीव स्वय ही छह कारक रूप से वर्तता है । इसलिए उसे अन्य कारको की अपेक्षा नही है । प्रश्न २५०- ( १ ) शरीर, मन, वाणी के कार्य, (२) द्रव्यकर्म; (३) जीव के विकारी भाव, (४) अविकारी भाव; क्या निरपेक्ष होते हैं, इसके लिए कोई शास्त्राधार है ? उत्तर- (१) देखो, पचास्तिकाय गा० ६२ टीका सहित मे लिखा है कि "सर्व द्रव्यो की प्रत्येक पर्याय से यह छह कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्ध दशा मे या अशुद्ध दशा मे स्वय छहो कारक रूप परिणमन करते हैं और दूसरे कारको की अपेक्षा नही रखते ।” (२) जयघवल न० ७ पृष्ठ १७७ मे लिखा है कि "वज्झ कारण निरपेक्खो वथ्यु परिणामों" वस्तु का परिणाम बाह्य कारणो से निरपेक्ष होता है । (३) समयसार कलश न० ५१, ५२, ५३, ५४, ६१ मे तथा कलश २०० मे 'नास्ति सर्वोऽपि सम्वन्ध " ऐसा कहा है । (४) आप्तमीमासा मे कहा है "धर्मी धर्म को निरपेक्ष मानो" । प्रश्न २५१ - क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता है ? उत्तर - कुछ भी नही कर सकता है । विचारिये केवली भगवान को अनन्त चतुष्ट्य की प्राप्ति अरहतदशा मे हुई है । वह उसी समय ओदारिक शरीर का और चार अघाति कर्मों का अभाव नही कर सकते और छद्मस्थ को जरा सा ज्ञान का उघाड हुआ और वह कहे, मैं पर का कर सकता हूँ, आश्चर्य है । प्रश्न २५२ - संसार में कितने प्रकार की दृष्टि है ? उत्तर - दो हैं । (१) द्रव्यदृष्टि (२) पर्याय दृष्टि । प्रश्न २५३ - इन दोनों दृष्टियों का क्या फल है ? उत्तर- द्रव्यदृष्टि का फल - मोक्ष है और पर्यायदृष्टि का फल - निगोद है ।
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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