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________________ ( 233 ) तथापि वह परिणमन अपना है-ऐसा वह जानता है। ऐसा व्यवहार का ज्ञान उस काल का प्रयोजनवान है / सम्यग्ज्ञान होता है तब निश्चय" व्यवहार का स्वरूप यथार्थ ज्ञात होता है तब द्रव्य पर्याय का स्वरूप ज्ञात होता है, तब कर्ता-कर्म का स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रव्य के लक्ष से मोक्षमार्ग रूप कार्य प्रगट होता है, उसका कर्ता आत्मा स्वय है। इस प्रकार इस २११वें कलश मे आचार्य देव ने चार बोलो द्वारा स्पष्ट रूप से अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है, उसका विवेचन पूर्ण हुआ। जय महावीर-जय महावीर -'.-- दसवाँ अधिकार भैया भगवतीदास जी विरचित || उपादान-निमित्त दोहा || दोहा-पाद प्रणमि जिनदेव के, एक उक्ति उपजाय / __उपादान अरू निमित्त को, कहूँ संवाद बनाय // 1 अर्थ-जिनेन्द्रदेव के चरणो मे प्रणाम करके एक अपूर्व कथन तैयार करता हूँ। उपादान और निमित्त का सवाद बनाकर इसे कहता हूँ। प्रश्न-पूछत है कोऊ तहां, उपादान किह नाम / कहो निमित्त कहिये कहा, कब के है इह ठाम // 2
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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