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________________ ( 213 ) कर्ता-कर्म का सम्बन्ध नही है-इस सिद्धांत को आचार्यदेव ने चाय वोलो से स्पष्ट समझाया है - (1) परिणाम अर्थात पर्याय हो कर्म है-कार्य है। (2) परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नही होते / क्योकि परिणाम अपने-अपने आश्रयभूत परिणाम (द्रव्य) के आश्रय से होते है / अन्य के परिणाम अन्य के आश्रय से नही होते। (3) कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, अर्थात् परिणाम वस्तु के बिना नहीं होते। (4) वस्तु को निरन्तर एक समान स्थिति नही रहतो, क्योंकि वस्तु द्रव्य-पर्याय स्वरूप है। इस प्रकार आत्मा और जड सभी वस्तुये स्वय ही अपने परिणामरूप कम की कर्ता है-ऐसा वस्तु स्वरूप का महान सिद्धात आचार्य देव ने समझाया है और उसी का यह प्रवचन है। इस प्रवचन मे अनेक प्रकार मे स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेव ने भेदज्ञान को पुन: पुन समझाया है। देखो, इसमे वस्तु स्वरूप को चार वोलो द्वारा समझाया है। इस जगत मे छह वस्तुये है आत्मा अनन्त है, पुद्गल परमाणु अनन्तानन्त हैं तथा धर्म, अधम, आकाश और काल-ऐसी छहो प्रकार की वस्तुये और उनके स्वरूप का वास्तविक नियम क्या है ? सिद्धान्त क्या है ? उसे यहा चार बोलो मे समझाया जा रहा है - (1) परिणाम हो कर्म है। प्रथम तो 'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयत' अर्थात् परिणामी वस्तु के जो परिणाम है वही निश्चय से उसका कर्म है / कर्म अर्थात् कार्य, परिणाम अर्थात् अवस्था; पदार्थ की अवस्था ही वास्तव मे उसका कर्म-कार्य है। परिणामी अर्थात अखण्ड वस्तु; वह जिस
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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