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________________ ( ६ ) छुडाया है तो फिर सन्तपुरुष एक परम त्रिकाली ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमा में स्थिति क्यो नही करते ? ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रकट किया है । प्रश्न २० -- निश्चयनय को अगोकार करने और व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्दकुन्द श्राचार्य ने मोक्षप्राभुत गाथा ३१ मे क्या कहा है ? उत्तर—जो व्यवहार की श्रद्धा छोड़ता है वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है तथा जो व्यवहार मे जागता है वह अपने कार्य मे सोता है । इसलिए व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है । यही बात समाघितन्त्र गाथा ७८ मे भगवान पूज्यपाद आचार्य ने बताई है। प्रश्न २१ - व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ? उत्तर ---व्यवहारनय ( १ ) स्वद्रव्य, परद्रव्य को (२) तथा उनके भावो को (३) तथा कारण-कार्यादि को, किसी को किसी मे मिला कर निरूपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए और निश्चयनय उन्ही का यथावत निरूपण करता है । तथा किसी को किसी मे नही मिलाता और ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । इसलिये उसका श्रद्धान करना चाहिए । प्रश्न २२ -- आप कहते हो कि व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना और निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना । परन्तु जिनमार्ग मे नयों का ग्रहण करना कहा है। उसका क्या कारण है ? उत्तर - जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो सत्यार्थ ऐसे ही है - ऐसा जानना तथा कही An
SR No.010117
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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