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________________ মানুজো উক্ত ४४३ गईयुं अदर बळसि बेदलेयुम्........... में प्रतिपा (शेष पढ़े जानेके योग्य नहीं है)। [EO, XI, Davangere tl., n° 90] [जिनशासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जब, (उन्ही चालुक्य उपाधियों सहित), त्रिभुवनमल्ल-पेाडि-देवका विजयी राज्य प्रवईमान था तब तत्पादपमोपजीवी राजा पाण्ड्य था । पृथ्वीपर उसका सामना करनेवाला कोई भी न था। उसने शिव (त्रिपुर), शक, गरुड, भर्जुन (फाल्गुन), राम, सहस्रार्जुन, कृष्ण, भीम, इन सबको जीता था। उसका दण्डाधिप सूर्य यादव-वंशका सूर्य और राजिग-चोळके प्रयनोंका विफल करनेवाला था। उसकी पत्नी कालियके थी। जो धन चोरों, सगेसम्बन्धियों, लोभियों, राजाओं, या अमिसे नष्ट किया जा सकता है, उसकी प्रातिमें क्या स्थिरता है, इसलिए उसने उसकी स्थिरताके लिये सेम्वनूरमें जिनपतिका एक उत्तम मन्दिर बनवाया। उसकी प्रशंसा। कालियकेके पिता मालवा , माँ जकन्वे,.... कलि-देव थे। सूर्य-चमूपका छोटा भाई मादित्य-दण्डाधिनाथ था। उसकी प्रशंसा । द्रविण-संघके नन्दि-संघमें अरुङ्गळान्यय चमकता है। उसमें समन्तभद्र, वादिराज, उनके शिष्य अजितेश (मजितसेन-मट्टारक) उनके ज्येष्ठ शिष्य मल्लिषेण-मलधारी, उनके शिष्य श्रीपाल-विद्य-देव हुए । प्रत्येकका एक. एक श्लोक में गुणवर्णन। (उक्त मितिको), सेम्बनूरके मन्दिर-पुरोहित शान्तीशयन-पण्डितके हायोंमें, ज्येष्ठ दण्डनायकिति कालियकम्वेने जलधारापूर्वक पार्थदेव और उनकी पूजा तथा पुजारीकी आजीविकाके लिये (उक) भूमिदान किया। कल्याणकामना और शाप] २८९-९० श्रवणबेल्गोला-संस्कृत तथा कार [शक १०५०-११२९ ई. (कीलहॉर्न)] (जै०शि० सं०, प्र. भा०)
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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