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________________ २३४ जैन - शिलालेख संग्रह [ स्वस्ति | नाग-कुआँ जिसको गुणसेन पण्डित देवने नकर याने व्यापारी संघ धर्म के रूप में खुदवाया । ] [ EC, IX, Coorg tl., n° 42] १९२ सोमवार - कन्नड़ [ विना काल-निर्देशका; लेकिन संभवत: लगभग १०६० ई० ] [ सोमवार (मलिपट्टण परगना ) में, बसवण्ण मन्दिरकी बाहरी दीवाल के पाषाणपर ] धरेयोळगेचल-देविगे । गुरुगल गुणसेन - पण्डित विळ-गणम् । वर - नन्दि-संघमन्वय मरुङ्ग'....''नगदेन्दडेम्बणिपुडो || भद्रमस्तु । [ एचलदेखिके गुरु, — द्रविळ-गण, नन्दि-संघ और गुणसेन पण्डित, जो इतने प्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन इस सकता है ? कल्याण हो । ] अरुङ्गल - अन्वयक, संसार में कैसे हो [ EC, V, Arkalgud 1., 1° 98.3 १९३ कडवन्ति - कन्नड़-भन [ विना काल-निर्देशका पर संभवतः लगभग १०६० ई० ] [ कडवन्ति में, मेलु-कडवन्तिकी चट्टानपर ] भद्रमस्तु जिनशासनाय श्रीमत् दान खचर कन्दर्प सेनमार पृथुवी राज्यं गेय्युत्तमिरे देव-गणद पापाणान्वयद महेन्द्र-बोळळं पडेद अङ्कदेव भटारर शिष्यर्महीदेव भटारर गुडं निरवद्यय्यं मेळसरय मेगे निरवद्य - जिनालयमं माडिं खचर कन्दर्प- सेनमारन दयगेये निरवद्यय्यं मानिये पडेदु जक्कि मानियेन्दु पेसरनि निरवद्य - जिनालयके को
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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