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________________ अमरिका लेख २१९ १७८ अङ्गडि-कबड़-भान [बिना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०४० (१).. (लू० राइस)।] [भङ्गाडि (गोणीषीदु परगना)में, हरमकि दोड-उडयेमें पाषाणपर ] .........."राज्यं गेये....द्रविणान्वयद मूल-सं........... .."पण्डित............."तु तर्काचाळितामा....जलधि-यशो...कुतूहल...शय वज्रपाणि पण्डित-चरण || एनिसि सले गङ्गवाडिय । मुनि-वर रिं राजमल्ल-भूपालकनीमनु-नीति-मार्गनभयं । जन-पति-सम्यक्व-मार-नृपतिय गुरुगळ् ॥ वृ ॥ इरदापन्निगङ्गळि तळ.. व्यत्त हो....। दुरितारण्यमनेयदे सुदु सोसवरोळ् विळद कालान्तदोळ् । .... रे सन्यास-विधानाद मुडिपि पूज्यं वज्रपाणि-व्रतीश्वररत्युत्तम-मुक्तियं पडेदरेम् पुण्यक्कवर नो.... || (बायीं ओर ).............. रविकीर्तिमुनीन्द्रनेन्दु पट्टळिगेये पेळदेनेळ्व कल्नेले-देवर साहसोक्तियम् ॥ श्रीमत्-कल्नेले-देवतम्म गुरुगळ्गे निषिधिगेयं माडिसिदर् मङ्गळ [विणान्वय, मूलसंघके पण्डितके शिष्य वज्रपाणि-पण्डितके चरणोंमें जब राज्य कर रहा था:- गणवाहिके मुनियों में प्रसिद्ध राजा राजमल था। इसके गुरु वनपाणि-वतीश्वरने सोसवूरमें अपना जीवन व्यतीतकर मन्तमें संन्यास-मरण धारण किया और उन्हींका यह स्मारक है। [EC, VI, Mūdgere t)., n° 18) ध्या(बया )ना (राजपूताना)-संस्कृत [सं० ११००=१०४४ ई] [ IA, XIV, p. 8-10 n° 151, t. & a.] १ यह शिलालेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका है।
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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