SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दो राजाओं की लडाई मे सैन्य से विपुल धन से सहाय की थी और इस प्रकार राष्ट्रसेवा मे भी हिस्सा लिया था। इसी ग्रन्थ मे एक प्रबन्ध विजयसिंह सूरिका आता है, उसमे उन्हें गुटिकासिद्ध मात्रिक के विशेषण से प्रशसित किया है इन विजयसिंह सूरि ने अपने मुख में गुटिका रखकर एक मंदिर के लिये रूपयो का चदा किया था, उस चदे मे कितनेएक ब्राह्मणों ने भी (किसी ने ५०, १००, २००) रूपये दिये थे और इस तरह किये हुये उस फण्ड मे कुल ५०,००० ) रूपये हुये थे । उन रूपयो से आचार्य श्री ने एक श्रेष्ठ कारीगर की सहाय से काष्ठ का जिनमंदिर सुधरवाया था । तदुपरान्त आचार्य 4 आर्यखपुट, आचार्य पादलिप्त, आचार्य रूद्रदेवसूरि और आचार्य नागार्जुन आदि की भी इसी प्रकार की प्रवृति उन २ प्रबन्धो मे, उन ग्रन्थो में वर्णित की हुई है । इन सब बातो के देखते हुये यह स्पष्ट मालूम होता है कि समाज ने धन लेकर कार्य करने वाले निस्पृह आचार्यो का वश धीरे २ सस्पृह हुआ हो और अपने पास भी द्रव्य रखकर अपने पूर्वजो के मार्ग को कायम रक्खा हो। सघ पट्टक मे वर्णित चैत्य वास के प्रारंभिक इतिहास मे बतलाया गया है कि, 'जिस वक्त श्रावक धार्मिक कार्यों की ओर दुर्लक्ष करने लगे और कितनीएक धार्मिक प्रवृतिया जो कि श्रावको के करने योग्य थी बन्द लगी वैसे समय मे उन तमाम प्रवृतियो को चालू रखने के लिये एव धार्मिक कार्यो को सभालने के लिये निर्ग्रन्थ साधुओ को भी अपने सयम का कुछ बलिदान करना पड़ा था, मंदिर आदि की व्यवस्था करनी पडी थी । तदर्थ द्रव्य का सम्पर्क, उसका हिसाब और लेन देन वगैरह भी विशेष करना पडा था । श्लो० १६५ से १६८ । ३ प्रभावक चरित्र विजयसिंह सूरि प्रबन्ध पृ० ६९-७८ । ४ प्रभावक चरित्र पृ० ५६ से ६१ श्लो० १४६ मे २३२ तक। ५ प्रभावक चरित्र यादलिप्त प्रबन्ध पृ० ४७ से ६९ तक। ६ प्रभावक चरित्र पृ० ५४-५५ तक। ७ प्रभावक च० पृ० ६२ से ६६ तक श्लो० २४८ से ३०६ तक। तदुपरान्त प्रभावक चरित्र में वर्णित प्रत्येक प्रबन्ध मे इस तरह की सख्याबद्ध बाते मिलती है और वह असर चैत्यवास नष्ट जाने पर भी अभी तक चली आ रही है। मानदेवसूरि, मुनिसुन्दरसूरि ४६ वा पट्टधर धर्मघोषसूरि. हेमचन्द्रसूरि, मलयगिरिजी, अभयदेवसूरि, वादिबेताल शान्तिमूरि और वादिदेवसूरिज प्रभृति अनेक आचार्यों के जीवन में ऐसी अनेक घटनाओ का उल्लेख मिलता है। राजा कुमारपाल जिनमंदिर मे वारवधुओ ( वेश्याओ) द्वारा आरती करता था यह भी चैत्य वासका ही असर था। " निसि निविसिऊण-पट्टे आरत्तिय मगलाइ । कारवइ । वारवहूनिवहेण मागहगणगिज्ज माणगुणो । (कुमारपाल के समसमयी सोमप्रभ) 84
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy