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________________ हैं कि लोकस्वभाव के कारण वीर निर्वाण के बाद ही कदाचित कही पर उसका अकूर प्रबलता की पाचवी या छठी शताब्दी लिखी है और उसका आरंभ बद्ध निर्वाण के बाद साबित किया है। बद्ध की विद्यमानता में ही ज्ञात पत्र श्रीवर्धमान का निर्वाण होने से हम यह कल्पना कर सकते हैं कि श्रीवर्धमान के निर्वाण बाद लगभग आधी शताब्दी बीत जाने पर मध्यम मार्ग के सस्थापक के स्मरण चिन्ह स्वरूप बुद्ध के मंदिर और मूर्तिया बनी हो। उस समय श्रीवर्धमान के भिक्षु सर्वथा निस्पृह, लोकैषणा की उपेक्षा करने वाले और कठिन त्यागी होने के कारण वे बुद्ध के मंदिर या मूर्तिया देखते ही ढीले बनजाय ऐसे न थे, उन्हे ढीला होने के लिये कुछ समय और निरकशता की आवश्यकता थी। वीर निर्वाण की लगभग पौनी शताब्दी बीत चुकने पर अर्थात् महावीर से ६४ वे वर्ष मे और जब उनके जम्बूस्वामी जैसे बलिष्ठ सेनापति का अभाव हो चुका तब उन्होंने धीरे २ उस कठिन मार्ग को छोडकर अपने मन माने सरल और उपयोगी मध्यम मार्ग का आश्रय लेना आरभ किया था। जो कठिन थे वे तो कठिन त्याग ही रहे, परन्त जो उस कठिनाई को सहन न कर सकते थे उन्होने मध्यम मार्ग को ही वीर भाषित मानकर आश्रित कर लिया। मध्यम मार्ग का प्रारभ बहुत ही सुन्दर और 'उपयोगी था, उस मे वे लोगो के लिये बौद्धभिक्षओ के समान अपना विशेष समय व्यतीत करते थे और जहा तक बन सके वहा तक वे जैनभिक्ष निर्दोषतया लोकोपयोगी बने थे। मेरी धारणा के अनुसार जैनो का यह मध्यम मार्ग ज्यो ज्यो विशेष लोकोपयोगी बनता गया होगा त्यो त्यो उन्हे अपनी कितनी एक प्रवृत्तियो मे भी परिवर्तन करना पडा होगा और कितनी एक ऐसी नवीन प्रवृत्तिया स्वीकारनी भी पडी होगी जो परोक्ष रीति मे या परम्परा से सयम की बाधक होती हो। उन्होने लोगो के हितार्थ यह भी उपदेश किया होगा कि अपने सामने सत्पुरूषो के स्मारक चिन्ह रखने की विशेष आवश्यकता है, जिसकी स्मति से धीरे २ हमारा विकाश होना शक्य और सुलभ बन सके। इस प्रकार के उपदेश से भगवान महावीर के स्मारक का प्रारभ करना यह अहिसा प्रधान सयम के दसरे और तीसरे (कराना और करने वाले का अनुमोदन करना) भागे का बाधक गिना जाता है. तथापि उस बाधक प्रवृत्ति को लोकोपयोगी मानकर सयम की वर्तमान परिस्थिति को देख कर उन्होंने निर्दोष समझा हो यह संभव हो। इसी तरह उन्होने दानशालायें, सत्रागार और पाठशालाये स्थापित करने कराने आदि लोकोपयोगी कार्यों मे हाथ लबाया हो यह भी सगत है और उन सब कार्यों की सुव्यवस्था करने के लिये लोगो की ओर से मुनि ही नियुक्त किये गये हो तो इसमे भी कोई असगति नही प्रतीत होती। उन समस्त कार्यों को सुचारुरूप से संचालित 80
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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