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________________ 'की आवश्यकता है कि जिससे मन स्थितप्रज्ञ रह सके और लाकोपकार भी हो सके। महात्मा वर्धमान स्वयं कायदण्डवादी थे और महात्मा बुद्ध मनोदण्डवादी थे। वह मध्यम मार्ग शोक के समय में वह प्रायः सर्वव्यापी हो चुका था। महावीर ोिण से दूसरी और तीसरी शताब्दी के बीच का समय मध्यम मार्ग के लिये विशेष अनुकल था। वह समय वही था जब कि भारत में सम्राट अशोक का धर्मराज्य प्रवर्तता था। उस समय ससारकी चौखण्ड पृथ्वी पर चारो ओर बौद्धमठों की स्थापना की गई थी, जिनमें रहने वाले बौद्धभिक्ष शक्य लोक सेवा करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे और सम्राट अशोक एवं उनकी प्रजा उन्हें सेवा करने की धनादि साधन सामग्री जुटाती थी। वे भिक्ष बीमारो को औषधि देते थे, उनकी सेवा शुश्रुषा करते थे, दीन दुखियों की सहाय करते थे, दर्दी पशुओ एव पक्षियो तक की चिकित्सा करते थे। विद्यार्थियो को विद्यादान करते थे, आरोग्य समिति के कार्य में भी सहायता करने से न चुकते थे, तथा जख्मी हुये डाकुओ तक की सेवाशुश्रुषा करके उन्हे भी परमदयालू बनाते थे। (देखो श्रमणनारद) इस तरह वे बौद्धभीक्ष हर एक प्रकार से लोगो की योग्य व्यवहारिक सेवा मे ही अपना जीवन व्यतीत करते थे और इसके द्वारा किसी तरह की आना कानी किये बिना ही वे बौद्ध प्रवचन को सर्वव्यापी बना रहे थे। इस प्रकार उस मध्यम मार्ग की परिस्थिति जितनी लाकोपयोग थी उतनी ही प्रजा सेवक भिक्षओ के लिये सरल और सुन्दर थी। मेरी मान्यतानुसार उस समय के श्रीवर्धमान के कठिन त्याग मार्ग मे खिन्न हुये जैनभिक्षुओ पर बौद्धो के इस सरल और लोकोपयोगी मध्यम मार्ग का असर होना सहज बात है। जम्बूस्वामी के निर्वाण बाद उन जैनभिक्षओ मे जिनकल्प के सम्बन्ध मे जो खल भलाहट मचा था उसे शान्त करने का यह एक ही उपाय था कि वे अपने से दस्साध्य कठिन त्याग के मार्ग को बदल कर इस मध्यम मार्ग जैसे सरल और उपयोगी मार्ग का आश्रय लेके अपने आत्मकल्याण और लोककल्याण की भी साधना करे। उस समय जो भिक्षु वस्त्र पात्र के मक्त विरोधी थे और श्रीवर्धमान के कठिन त्याग मार्ग के अनुयायी थे उन पर कदाचित मध्यम मार्ग का असर न हो सका हो, परन्तु जो मनि वस्त्र पात्र वाद को भी मानते थे और स्वकल्याण के आकाक्षी थे उन्हे यह मध्यम मार्ग इष्ट हो इस मे कोई आश्चर्य की बात नही है। यह सभव है कि वे किसी भी तरह श्रीवर्धमान के प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति को कम करना न चाहते थे, इससे बुद्ध के मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुये अपना वर्धमान -अनयायित्व न खोना पडे इस भय से उन्होने अपने पूर्वजो का मार्ग उज्वल करने के लिये एक ऐसा मध्यम मार्ग के समान सरल और उपयोगी मार्ग निकालना पसद किया था कि जिसके द्वारा वे बौद्ध 76
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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