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________________ देवद्रव्यवाद । मेरा तीसरा मुद्दा देवद्रव्यवाद नामक है, अब मैं उसका व्योरेवार प्रारंभ करता हूँ। चैत्य वाद के साथ यह विषय घनिष्ट सम्बन्ध रखता है इसी कारण मैंने चत्यवाद पर प्रथम चर्चा की है और उसके बाद त्रन्त ही इस पर विचार करना उचित समझा है। जो यह मानते हैं कि जहा मूर्ति हो वहां देवद्रव्य भी अवश्य होना चाहिये, मेरी मान्यता से उनका यह मत अयुक्त है, तथापि कुछ देर के लिये हम उसे मान भी लें तो जिन कारणों से देवद्रव्य की अविहितता और अर्वाचीन कल्पना साबित हो सकती है वे कारण ये हैं- उपरोक्त चैत्यवाद की चर्चा से यह बात तो आप भली प्रकार जान सके हैं कि मूर्तिवाद चैत्यवाद के बाद का है याने उसे चैत्यवाद जितना प्राचीन मानने के लिये हमारे पास एक भी ऐसा मजबूत प्रमाण नहीं है जो शास्त्रीय सूत्रविधि निष्पन्न या एतिहासिक हो । यों तो हम और हमारे कुलाचार्य भी मूर्तिवाद को अनादि का ठहराने तथा महावीर भाषित बतलाने की बिगुल बजाने के समान बाते किया करते हैं परन्तु जब उन बातो को सिद्ध करने के लिये कोई एतिहासिक प्रमाण या अंगसूत्र का विधिवाक्य मांगा जाता है तब हम बगलें झाकने लगते हैं और अपनी प्रवाहबाही परम्परा की ढाल को आगे कर अपने बचाव के लिये बुजुर्गों को सामने रखते हैं। मैंने बहुत ही कोशिश की तथापि परम्परा और बाबा वाक्यं प्रमाणं, के सिवा मूर्तिवाद को स्थापित करने के सम्बन्ध में मुझे एक भी प्रमाण या विधान नहीं मिला। वर्तमान समय में मूर्तिपूजा के समर्थन में कितनी एक चारणमुनि, द्रौपदी, मूर्याभदेव और विजय देव की कथाये भी आगे लाई जाती हैं, किन्तु पाठकों को यह बात खास ध्यान मे रखनी चाहिये, कि विधिग्रन्थों में बतलाया जानेवाला विधि, आचारग्रन्थो मे बतलाया जानेवाला आचारविधान खास शब्दो मे ही बतलाया जाता है, परन्तु किसी की कथाओ मे से या किसी का आधार लेकर अमुक २ विधान या आचार पैदा नहीं किया जाता। एक कथा मे उसके नायक ने जो अमुक प्रकार का आचारण किया हो वह सबके लिये विधेय या सिद्धान्तरूप नहीं हो सकता। उन लब्धिधारी मुनियो ने या अन्य किसी पात्रों ने चैत्यो को वन्दन किया वा जिन घर में जाकर पूजा की इससे हम इस प्रकार का सर्वसाधारण सिद्धान्त घडले कि उस समय के समस्त मनुष्य उस तरह का आचरण करते थे, यह सर्वथा असंगत है। थोड़े 71
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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