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________________ ९ 'बंगलाभाषा अभिधान, नामक बंगाली कोश में चैत्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है "चैत्य (चत) स्मृतिस्तंभ, चिताश्मशान + य (इदमर्थे यत्) पु० रख्वा (राख) किंवा श्मशान पार्श्वस्थ बोद्धगणेर-गणवा पूज्यवृक्ष, श्मशानतरू, चिता सम्बन्धीय। इस प्रकार चैत्य शब्द का मैंने जो अर्थ साबित करके बतलाया है मैं अनुमान करता हूँ कि उसमें पाठकों को अब किसी तरह का संशय, विपर्य या प्रम रहने का अवकाश नहीं रहता। जैन सूत्रों ने और अन्यान्य प्रामाणिक शब्दकोशों ने भी इसी अर्थ को प्रधान भाव से स्वीकृत किया है। अभी तक भी मेरे श्रद्धालु जैनीभाई इस सम्बन्ध में इस तरह का सशय कर सकते हैं कि जैनधर्म में इस प्रकार के स्तूप करने का रिवाज श्रद्धा विवेचक दृष्टि के समक्ष संशय करती ही रहती है और वह विवेचक दृष्टि धीरे २ उसके सशयो को छेदती जाती है। लीजिये मैं वैसे प्रमाण देने को भी तैयार हूँ और तदर्थ एक से अधिक प्रमाण, सो भी आपके मान्य सूत्रग्रन्थो के उल्लेख आपके सामने रखता हूँ जबद्वीपप्रज्ञति (अजीम पृ० १४०-१४७) "नएण से सक्के देविदे देवराया +++ भवणबइ-बाणमतर-जोइस वेमाणिए देवे एव वयासी+तओ चिइगाओ रएह x तित्थगरचिइगाए, गणहरचिइगाए अणगार्गचइगाए अगणिकाय विउव्वह x खीरोदगेण णिव्वावेह x तए ण मक्के भगवओ x दाहिण सकह गेण्हई" (इत्यादि) "तएण से सक्के x वेमाणिए देवे जहारिय एव वियासी x भो देवा प्पिया ! सव्वरयणामये महए महालये, तओ चेइयथभे करह-एग भगवओ तित्थगर स्स चिइगाए, एग गणहरचिइगाए, एग अवसेसाण अणगाराण चिइगाए x तए ण ते x करेंति x तए ण जेणेव साइं साइ भवणाणि, x सगा सगा माणवगा चेइयक्खभा, तेणेव x उबागच्छित्ता वइरामएस गोलसमुग्गएसु जिणसकहाओ पक्खिवंति" इस उल्लेख मे श्रीजिनभगवानों के निर्वाण प्रसग का वर्णन किया है। उसमें बतलाया है कि "देवेन्द्र। देवराज शक्र ने देवताओ से कहा कि तीन १ मूत्रकार और टीकाकारो का ऐसा ख्याल है कि महावीरभगवान की प्रत्येक क्रिया प्रधानतया देवो द्वारा कराई जाय तो उनकी विशेष बडाई हो, इसी धारणा से उन्होने भगवान महावीर की हड्डिया तक भी स्वर्ग मे पहुचा दी। भक्तिआवेश जन्य इम ख्याल का आज यह भीषण परिणाम उपस्थित हुआ है कि वर्तमान काल के मनुष्य, मानवजाति में उत्पन्न हुये श्री महावीर जैसे समर्थ व्यक्ति को भी नही पहचान सकते। मै प्रत्यक्ष देख रहा हैं कि किसी स्वर्गवासी मनुष्य भले ही श्री महावीर को पहचाना हो, परन्तु हमे तो उनकी असली पहचान कराने का किसी ने प्रयत्न ही नहीं किया।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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