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________________ 60 नहीं होता। पाठक स्वयं ही विचार सकते हैं कि ज्ञातों के व्यन्तरायतन उपासकों के व्यन्तरायतन अतकृतों के व्यन्तरायतन और अनुत्तर विमानगामियों के व्यन्तरायतन, इत्यादि वाक्यो का क्या अर्थ हो सकता है? कुछ भी नहीं। ऐसा अर्थ करने से यहां पर टीकाकारके किये अर्थ की उपेक्षा करके हमें वही प्रसिद्ध अर्थ घटाना चाहिये । (७) "एएसि ण चउवीसाए तित्थगराणं x चउब्बीसं चेइय रुक्खा भविस्सति" (स० पृ० १५४) अर्थात् ये चौबीस ही तीर्थकरो के चौबीस चैत्य वृक्ष होंगे। यहां पर नियोजित किया हुआ चैत्यवृक्ष शब्द भी अपने स्मारक या निशानवाले अर्थ को ही सूचित करता है। टीकाकार महाशयने यहां तो इसी अर्थ की पुष्टी की है। वे बतलाते हैं कि "चेइयरुक्खा बुद्धपीठ वृक्षा, येषामधः केवलानि उत्पन्नानि इति" (स० पृ० १५६ ) अर्थात् जिन वृक्षों के नीचे पीठ बांधा हुआ है-चौतरा वगैरह चिना हुआ है और जिनके नीचे तीर्थकरो की केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है उन वृक्षो को चैत्यवृक्ष कहा है। तीर्थकरो को प्राप्त हुये केवल बोधके स्मारक रूप पीठबद्ध वृक्ष ही यहां पर चैत्यवृक्ष समझने चाहिये। इसी प्रकार सूत्र कृताग, स्थानाग और समवायाग सूत्र के चैत्य शब्द से लगते हुये समस्त उल्लेख उसके उसी प्रधान और प्राचीन अर्थ का समर्थन करते हैं तथा अन्य भगवती आदि अगो मे भी इस विषय मे ऐसा ही अभिप्राय प्रदर्शित किया है और वह इस प्रकार है (५) भगवती सूत्र मे चैत्य शब्द का उपयोग (१) "असुर कुमाररण्णो x सभाए सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइगमएस गोवट्टसमुगए, बहूओ जिणराकहाओ संणिक्खित्तओ चिट्ठति" (अजीम पृ० ८७७) यह उल्लेख पूर्वोक्त समवायाग सूत्र के उल्लेख से मिलता जुलता है और इसका अर्थ भी उसके ही समान है। यहा भी श्री जिनेश्वर भगवान की हड्डिया वज्रमय गोलडब्बे मे भरकर चैत्यस्तभ में रक्खी हुई हैं। टीकाकार भी चैत्यस्तभ के इस भाव को समर्थन करते है। अतः यहा पर नियोजित किया हुआ चैत्यस्तभ शब्द अपने मूल और पुराने अर्थ को सूचित करता है, यह बात निविवाद है। तथा (२) "चेइयाइ व दइ' (अजीम पृ० १५०७ १५०८ १५०९) (३) "अरहतचेइयाणि वा" अजीम पृ० २४६ - २५६) (४) "देवय चेइय" (अजीम पृ० १५१-२१८-८७७ - १२४६) (५) "चेइयमहे" अजीम पृ० ७९९) इन चारों उल्लेखो मे भी चैत्यशब्द के उसी भाव का समन्वय करना समुचित मालूम होता है जो उसका मुख्य और प्राचीन भाव है। इसके उपरान्त निम्नलिखित सभी स्थानो मे चैत्य शब्द का उपयोग व्यन्तरायतन (व्यन्तरके रहने का स्थान) के अर्थ मे किया गया है। (६) "गुणसिलए चेइये" (अजीम पृ० ५-१४८ - १८२-१९१-१९२-४०९-५११-५१४-६२२-१३०५
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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