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________________ अवशिष्टाधार-भाजन या पवित्र वृक्ष इत्यादि के वाचक के तौर पर उपयोग । में लिया जाने लगा था, यह बात साहित्य में मिलनेवाले उसके उल्लेखों द्वारा जितनी सिद्ध होती है उतनी ही पर्याय दर्शक संस्कृत कोशो पर से साबित होती है। यह विषय कवि कालिदास रचित् मेघदूत के २३ वें श्लोकपर मल्लिनाथ की ई० सन् १४ वीं शताब्दी की टीका मे उल्लिखित महेश्वर कवि ईस्वी सन् ११११ के विश्वप्रवास पर से भी देखा जा सकता है। - (एन्साइकलोपीडिया ऑफ रीलिजीयन एण्ड एथिकस)। बनारस से प्रगट होती नागरी प्रचारिणी पत्रिका में 'देवकुल' विषय के लेख में चैत्यशब्द के सम्बन्ध मे इस प्रकार उल्लेख किया है "देवपूजा का पितपूजा से बड़ा सम्बन्ध है। देवपूजा, पितृपूजा से ही चली है। मंदिर के लिये सबसे पुराना नाम "चैत्य" है, जिसका अर्थ चिता (दाहस्थान) पर बना हुआ स्मारक है। शतपथ ब्राह्मण मे उल्लेख है कि शरीर को भस्म करके धातुओ मे हिरण्यका टुकडा मिला कर उन पर स्तूप का चयन (चनना) किया जाता था। बद्ध के शरीर धातुओं के विभाग तथा उन पर स्थान २ पर स्तूप बनने की कथा प्रसिद्ध ही है। बद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिन्ह थे, फिर पूज्य हो गये।" (पंडित चद्रधर शर्मा गुलेरी, बी० ए० अजमेर) आगमोदय समितिवाले आचाराग सूत्र मे इस षिय में नीचे मजब बतलाया है- "चेइयमहेसु' (पृ० ३२८) चेइयाइ (पृ० ३६६-३६७) रूक्खं वा चेइयकड' 'थूभ वा चेयकाड' वा (पृ० ३८२) और 'मडयथूभिचसु वा मडयचेइयेसु वा (पृ० ४२०) इस प्रकार इतनी जगह आचाराग सूत्र में चैत्यशब्द का उपयोग किया गया है। सूत्रो में जहा कही चैत्यशब्द का उपयोग किया गया है वहा पर विशेषत उसका व्यन्तरायतन अर्थ किया गया है। यह व्यन्तरायतन और कुछ नही किन्तु स्मशान मे, उज्जड जगह में खण्डहरो मे या गृहस्थों के रहने की हदके किसी विभाग मे जलाये हुये या दबाये हुये मृतक शरीरो पर चिनवाये हुये चबूतरे, स्तूप या कबरे हैं। विशेषतः मृतको के जलाने या दफनाने की जगह मे ही व्यन्तरो का निवास लोक प्रतीत है, अतः वैसी जगह मे चिने हुये चबूतरे, स्तूप या कबरे, जिसे हम चैत्यशब्द से, संबोधित करते हैं, उसे व्यन्तरायतन-व्यन्तर के रहने के स्थान की संज्ञा भी संघटित होती है। तथा 'रूख वा चेइयकडथूभं वा चेइयकड, 'मडयथूभियास, 'मडयचेइएस (मृतक चैतयेस) ये सारे उल्लेख तो उसी अर्थ को दृढ़ करते हैं जिस अर्थ को हम उपरोक्त प्रमाण से निर्विवाद समझते हैं। इस प्रकार आचारांग सूत्र चैत्यशब्द के उपरोक्त प्रमाणित अर्थ
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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