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________________ 53 'लेन देन का व्यापार करते हैं, अविहित अनुष्ठान करने से प्रभावना होती बतलाते हैं। प्रवचन में न बतलाये हुये तपकी प्ररूपणा करके उसका उपकरण और द्रव्य अपने अनुरागी गृहस्थों के घर पर इकट्ठा कराते हैं, प्रवचन सुनाकर गृहस्थों से धन की आकांक्षा रखते हैं, ज्ञान कोश की वृद्धि के लिये धन एकत्रित करते और कराते हैं। उन सब में किसी का समुदाय परस्पर मिलाप नहीं रखता, सब में परस्पर विसंवाद है। अपनी २ बडाई करके सामाचारी का विरोध करते हैं। वे सब लोग विशेषतः स्त्रियों को ही उपदेश देते हैं, स्वच्छन्द होकर बर्तते हैं, धमाल मचाते हैं, अपने भक्त के सरसों समान गुण को भी मेरु समान गा बतलाते हैं, विशेष उपकरण रखते हैं, घर २ जाकर धर्मकथाये सुनाते हुये भटकते हैं। सबके सब अहमिंद्र हैं, अपनी गरज पडने पर मृदु बनते हैं और गरज पूरी होने पर ईर्षा करते हैं। गृहस्थियो का बहुमान करते हैं, गृहस्थो को सयम के सखा कहते हैं, चदोवा और पूठिया की वृद्धि करते जा रहे हैं, नांदकी आमदमे भी वृद्धि किये जा रहे हैं, गृहस्थों के पास स्वाध्याय करते हैं और परस्पर विरोध रखते हैं, तथा चेलो के लिये परस्पर लड मरते हैं। अन्त में लिखते हैं कि "ये साधु नही किन्तु पेट भरनेवाले पेटू हैं, जो यह कहते हैं कि वे तीर्थकरका वेश पहनते हैं, अत वन्दनीय हैं, इस लिये श्रीहरिभद्रसूरिजी कहते है कि यह बात धिक्कार के पात्र है, यह मस्तक वेदना की पुकार किसके पास की जाय ? इस प्रकार श्रीहरिभद्रसूरिजी ने अपने चैत्यवास की स्थिति के लिये सविस्तर उल्लेख करके बडी टीका की है और उन साधुओं को निर्लज अमर्याद क्रूरादि अनेक विशेषणों से सबोधित किया है। इसी इबारतके साथ मिलती जुलती इबारत मैंने महानिशीथ सूत्र में भी देखी है, परन्तु उसे यहा घृत करके पुनरुक्ति करने की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा इस विषय के साथ सम्बन्ध रखनेवाली एवं अन्य भी बहुतसी उपयोगी बाते मैंने गुजराती भाषान्तर शतपदी नामक ग्रन्थ में भी विस्तृत विस्तार वाली पढ़ी हैं, सूचना करने के सिवा उन में से मैं यहा पर कुछ भी नही लिख सकता । चैत्यवासियों के जो आचार ऊपर बतलाये गये हैं उनमें से कितने एक तो आज भी वैसे ही विद्यमान है और कितने एक आचारो में कुछ थोडाघना सुधार भी हुआ मालूम देता है। इस सम्बन्ध में जो नीचे नोट दिये है पाठको का उस ओर खास ध्यान खीचता हूँ। मैं मानता हूँ कि जो रोग हड्डियों तक में व्याप्त हो गया हो उसका शीध उन्मूलन होना सहज काम नहीं है, वैसे ही चैत्यवासका जो असर मुनियो के मूल आचारो पर हो गया है उसे सहज ही में दूर करना बड़ा कठिन है, तथापि जैन समाज यदि महात्मा गांधीजी जैसे किसी समर्थ पुरूष को पैदा करे तो यह रोग एक क्षण भर भी नहीं टिक
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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