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________________ 46 प्रत्येक तैरने वाले को निरन्तर तुबा रखना ही चाहिए, उसके सिवाय उसका छुटकारा ही नहीं और दूसरा यों कहे कि हरएक तैरने वाले को अपने आत्मबल पर विश्वास रख कर ही तालाब में कूद पड़ना चाहिये और तुंबे का जरा भी स्पर्श न करना चाहिये। ये दोनों बातें जैसी हास्यपात्र हैं उसी प्रकार श्वेताम्बरता और दिगम्बरता का आग्रह भी मुमुक्षुओं के लिए वैसा ही हास्यपात्र है। मैं मानता हूँ कि यदि उन्होंने किसी तरह का आग्रह न रख कर मात्र सूत्रग्रन्थों के अनुसार ही अपना पक्ष कायम किया होता और यह लिखा होता कि भिक्षुओ को चाहिये यथाशक्य अपनी आवश्यकताओं को कम रक्खें और विवश होकर मात्र संयम निर्वाह के लिए यदि कोई छूट रखनी पड़े तो वह बहुत ही कम प्रमाण में रक्खें, इतने ही अक्षरों मे उन दोनों पक्षों का आशय आ सकता है। सारा समाधान हो सकता था और दोनों में से एक पक्ष ज़रा भी खण्डित नही होता था। परन्तु जो आग्रह के घोडेपर चढ़े हो, उनके मन में ऐसी मताग्रह के नकारे बजते हो, वहा निस्पक्षता की तूती कौन सुनता है ? उन्होंने पक्ष भी अकाव्य बांधे और प्रजाके आध्यात्मिक बैलका नाश होने की तरफ जरा भी ध्यान न दिया । मानसिक बलका सत्यानाश होने पर भी उन्होंने "देह पातये" और कार्या साधये, की रीतिसे अपना विशिष्ट बल इसी मार्ग में खर्चना शुरू किया और जो बात महावीर ने न कही थी, एव जो महावीर के प्रवचन में उसे सकलित करने वालो ने भी न चढ़ाई थी, उसी बात को महावीर के नाम पर चढ़ाकर वैसे अनेक ग्रन्थ लिखने शुरू किये और साहित्य रूपी अपूर्णनिरोगी शिशु को महावीर के नाम पर चढ़ाते हुए सम्मिश्रणों की शटास पिला २ इतना अधिक सुजा दिया कि वर्तमान काल में यह समझना भी बड़ा कठिन हो गया है कि यह उसकी विकार जन्य सोजिश स्थिति है या वास्तविक रक्त। एक तरफ आचार्य श्री जिनभद्रजी ने इस तरह का प्रघोष किया कि जिनकल्प विच्छेद हो गया है, ऐसा श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है । इस तरह असत्य रीत्या जिनेश्वर भगवान के नाम पर चढ़े हुए प्रवादका अनुसरण करके और प्रचलित सप्रदाय को सन्मान देकर आचारांग सूत्र के टीकाकार श्री शीलाकसूरिजी न उस आचार प्रधान ग्रन्थ मे जहां पर वस्त्र पात्र से लगते हुये नियम लिखे गये हैं वहां बहुत सी जगह ऐसा उल्लेख किया है कि "यह तो जिनकल्पीका आचार है, यह सूत्र जिनकल्पीको उद्देश कर लिखा गया है और यह बात जिनकल्पको ही घट सकती है।" जहां तक मैं समझता हूँ, टीकाकार के ये उल्लेख मूलका स्पर्श तक नही करते, क्योंकि यदि उस प्रकार नामो के विभागानुक्रम से ही आचारों का बन्धारन किया गया होता तो मूलमें ही क्यों न वैसा उल्लेख किया गया होता। मूलमे तो मात्र विशेषता रहित भिक्षु और भिक्षुणी शब्दों में ही मुनियों के आचार लिखने का
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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