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________________ हो गई थी, बझ गई थी और पीछे फिर भी भावी तिमिर संचरण की सध्या ने अपना रग प्रकाशित किया था। हतं सैन्यमनायक' यह उति भारतीय प्रजा को सदा से लागू पडती आ रही है। सेना पूर्णजोष में लड़ रही हो और विजय प्राप्ति में मात्र दस पाच ही मिनट बाकी हों, ऐसे समय यदि सेनापति के गिर जाने की खबर सुनने में आवे तो भारत की सेना तितर बितर हो कर कौरवों के समान चारों दिशाओं में भाग जाती है और अपने क्षत्रीयपन को लाछित करती है। यथार्थ यही रीति भारत के धर्मक्षेत्र में या अन्य समस्त व्यवहारों में अभी तक समान रूप से लागू पड़ी है। वर्धमान का निर्वाण होने से परम त्यागमार्ग के चक्रवर्ती का तिरोधान हो गया और ऐसा होने से उनके त्याग निर्ग्रन्थ निर्नायक से हो गये। तथापि मैं मानता है कि श्रीवर्धमान के प्रताप से उनके बाद की दो पीढियो तक श्री वर्धमान का वह कठिन त्यागमार्ग ठीक रूप से चलता रहा था। यद्यपि जिन सुखशीलियो ने उस त्यागमार्ग को स्वीकारा था उनके लियेकछ छूट रक्खी गई थी और उन्हे ऋज् प्राज्ञ के मबोधन मे प्रसन्न रक्खा गया था, तथापि मेरी धारण मुजब व उस कठिनता कोमहन करने में असमर्थ निकले थे, और श्रीवर्धमान सुधर्मा तथा जब जैसे समर्थ त्यागी की छाया मे वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकार की चीपटाक किये बिना यथा तथा थोडी सी छूट लेकर भी वर्धमान के मार्ग का अनुसरण करते थे। परन्तु इस समय वर्धमान, सधर्मा या जब कोई भी प्रतापी परूष विद्यमान न होने से उन्होने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वर का आचार जिनेश्वर के निर्वाण के साथ ही निर्वाण को प्राप्त हो गया है। जिनके जैसा मयम पालन करने के लिये आवश्यक शारीरिक बल या मनोबल आजकल नही रहा, एव उच्च कोटि का आत्म विकाश और पराकाष्ठा का त्यागमार्ग भी आज लोप हो गया है। अत अब तो वर्धमान के समय मे जो छूट ली जाती थी उनमे भी सयम के सभीते के लिये (२) वद्धि करने की आवश्यकता मालम देती है। मेरी मान्यतानसार इस सक्राति काल मे ही श्वेताम्बरता और दिगम्बरता का बीजारोपण हुआ है.और जब स्वामी के निर्वाण बाद इसका खूब पोषण होता रहा हो यह विशेष सभवित है। यह हकीकत मेरी निरी कल्पना मात्र नहीं है, किन्तु वर्तमान ग्रन्थ भी इसे प्रमाणित करने के सबल प्रमाण दे रहे हैं। विद्यमान सूत्र ग्रन्थो एव कितनेक अन्य ग्रन्थो मे प्रसगोपात यही बतलाया गया है कि.. "मण-परमोहि-पुलाए आहारग-खवग उवसमे कप्पे। संजमतिय केवलि-सिझणा य जबुम्मि वुच्छिण्णा" ।। २५९३।।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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