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________________ 24 ऐसे समय में जबकि सारा समाज विचार शून्य होकर गतानुगतिक के प्रवाह में बहा जा रहा है, कोई विचारक अपने पूर्वजो के वचनों का अनुकूलतानुसार उद्योग करने का प्रयत्न करे तो संभव है कि उसकी और भी खराब स्थिति हो जाय। इस वेताम्बर पक्ष में एक और पन्थ है, जिसे स्थानकवासी के नाम से पहचानते हैं। यह सप्रदाय मूर्तिवादको नहीं मानता। इसके साधुओं में कहीं कहीं पर त्याग की भावना देख पड़ती है, परन्तु वर्तमान में वे भी अपने लक्ष्य से विलक्ष्य हो फैशन की ओर खिचे जा रहे हैं। मेरी मान्यता के अनुसार मूर्तिवाद को सर्वथा अविधेय मानना भी अनुचित है। ऐसा करने से बहुत से बालजीवों के जीवन विकाश में बाधा पडती है, "भक्तिमार्ग का अवलम्बन करने वालों का कल्याण अटक जाता है" खैर, करे सो भरे और जैसा बोवे वैसा काटे । मुझे सबसे विशेष यह बात खटकती है कि इन तीनों पक्षवालों ने भले ही अपने अपने अनुकूल जुदे जुदे मन्तव्य प्रचलित किये, परन्तु इन्होंने उन मन्तव्यो को वर्धमान के नाम पर चढ़ाने का जो साहस किया है उसे मैं भयंकर पाप - अपराध - अन्याय मानता हूं और यह अपराध करते हुये उन्होंने अपनी अनुकूलतानुसार संकलित किये हुये अपने अपने मन्तव्य का जो एकान्त समर्थन और परस्पर इतर का तिरस्कार किया है इसे मैं महा भीषण तमस्तरण की भगिनी समझता हू। पाठक प्रश्न करेगे कि इस तरह रजसे गज बनने और राईसे पर्वत बनने का हेतु क्या है ? उत्तर मे मुझे नम्रता पूर्वक कहना पडेगा कि इसका एक मात्र हेतु जैनसाहित्य का विकार है। साहित्य में समय समय पर परिवर्तन होना स्वाभाविक है, परन्तु जो परिवर्तन अनिष्टाकार में होता है उसका परिणाम समाज के हित के बदले विनाश मे उपस्थित होता है। शरीर मे चढ़ा हुआ सोजा एक भीषण व्याधि माना जाता है, वैसे ही साहित्य पर चढ़ा हुआ एकान्तताका और अनुकूलता - स्वच्छन्द का सोजा भी उतना ही भयंकर है। साहित्य के सोजे के उतारने के लिये यदि कोई अमोघ उपाय हो तो वह उसका यथातथ्य इतिहास है। यहां पर मुझे पाठकों के समक्ष साहित्य के साथ सम्बन्ध रखनेवाली समस्त ऐतिहासिक परिस्थिति के कथन करने का अवकाश नहीं है, तथापि अपने निबन्धक मूल मुद्रों को पृथककरण 'पूर्वक व्योरेवार विवेचन करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं। उन मुद्दों का क्रम मैंने इस प्रकार रक्खा है । १ श्रेताम्बर दिगम्बरवाद, २ चैत्यवाद, ३ देवद्रव्यवाद, और ४ आगमवाद । मेरा सारा व्याख्यान ( यह निबन्ध) इन चारो मुद्दों में ही पूर्ण होगा। पहले मुद्दे में दिगम्बर श्रेताम्बर के इहितास को प्रकाशित करना है।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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