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________________ 21 छूट लेने पर भी उनकी सदैव यही भावना रहती थी कि हम कब लज्जाको जीत कर सर्वथा यथागत होकर, पात्रकी भी गरज न रख कर संयमका निर्वाह करके अपने उस उच्च लक्ष्य को प्राप्त करेंगे। छूट लेने वाले छूटका समर्थन न करते थे, परन्तु जिस तरह वृद्ध अनुभवी वैद्यकी अनुमति से रोगी औषधि सेवन करता है आतुरता के साथ ऐसे आरोग्य प्राप्त हो और इस औषधि से पीछा छूटे। इस प्रकार का उनका आचार था । यहा पर मैं उनके आचार के सम्बन्ध में बहुत कम लिख सका हू, परन्तु इस विषय को परिपूर्ण समझने की जिज्ञासा वाले पाठकों से मैं निवेदन करता हू कि वे आचारांग सूत्र भाषान्तर आद्योपान्त पढ़कर अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर ले। मुनियों के पूर्वोक्त आचार आज भी विद्यमान आचाराग सूत्र मे वैसे ही उल्लिखित हैं। मेरी मान्यता है कि त्याग के पावन्द आचार्यों ने इस उल्लेख के मूल भाग में बहुत कम परिवर्तन होने दिया है। अगसूत्रो मे मैंने मुनियों के आचार के सम्बन्ध में बहुत कुछ पढ़ा है उसमे दीक्षित होनेवाले मुनि के लिये मात्र दो ही उपकरण - एक पात्र और दूसरा रजोहण ग्रहण करने की बात आती है। मेरा ख्याल है कि दो उपकरण हो या एक दो अधिक हो इसमे विशेष विचार की कोई बात नही है, क्योंकि उन उपकरणों का उपयोग सिर्फ औषधि के समान किया जाता था । और निरूपकरणी बनने के लिये ही उनकी आवश्यकता थी । पूर्वोक्त प्रकार से श्रीवर्धमान, उनके अनुयायी स्थविर और उनका प्रवचन इन सबकी एक समान अनाग्रही एव स्याद्वादमयी स्थिति होने पर भी वर्तमान में वर्धमान के शासन में एक पक्ष नग्नता का ही पोषण करता है। किसी मुमुक्षु से प्रारम्भ मे न धारण की जाती हो तो उसकी मुनिता का निशेध करता है। मेरे देखने मुजब उनके साहित्य मे - दिगम्बर ग्रन्थो मे आदान समिति और पारिष्ठापनिका समिति की विहितता होने पर भी वे कारणिक वस्त्र पात्रका ऐसा सक्त निषेध करते हैं कि जिसके परिणाम में उन्हे वर्तमान समय में मुनिमार्गका लोप सहन करना पडता है। जिस तरह कोई मनुष्य अपने पुत्र को कहे कि तुझे पण्डित परीक्षा उत्तीर्ण करती है, परन्तु यह ध्यान में रखना कि वर्णमाला पढने के लिये शिक्षकके पास जाने की जरूरत नहीं है और न ही पहली, दूसरी, तीसरी एव क्रमवार नियुक्त की हुई पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन करना है, सीधा ही उच्च श्रेणी का पण्डित बनना है। बस इस कथन के समान ही उस पक्षकी मोक्ष मार्ग में वस्त्र पात्र बाद के एकान्त निषेधकी आग्रह दशा है। यह समाज नग्नता का पोषक होते हुए भी मूर्तिवाद को स्वीकृत करता है और उसके लिये वर्तमान मे बड़े बड़े मुकदमे
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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