SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 19 · लिये अनिर्वचनीय है। उनके समय में उनके सत्य पर अमल करने वाले जो निर्ग्रन्थ थे उनमें से कितने एक तो उनकी वृत्तिसे मिलते हुये थे और जो मुमुक्षु उनकी वृत्ति को प्राप्त करने में असमर्थ थे उनके लिये वर्धमान के कितने एक अन्तेवासियों गणधरोंने परिभाषिक भाषा में कितने एक नियम बना दिये थे। मेरी धारणा है कि वहां तक तो छोटे बड़े सब निर्ग्रन्थ का लक्ष्य परम माध्यस्थ की तरफ ही था। जिसे श्रीवर्धमान ने आचार में रक्खा था, उस लक्ष्य को पाप्त करने के लिये उस समय के स्थविरों ने जो नियम घड़े थे उनमे श्रीवर्धमान का सहयोग भी औदयिक दृष्टि से रहा हो तो यह समयोचित है। समय और कुदरत का यह नियम है कि किसी भी तरह की नियमबद्ध संगठना सिवा नियंत्रण के स्थिर नहीं रह सकती । यद्यपि वह नियमबद्ध संगठना मात्र परिवर्तन की पात्र है, तथापि नियंत्रणाके कारण वह अपने मूल स्वरूप से भ्रष्ट नहीं होती । स्थविरों ने जो नियमबद्ध संगठनायें बांधी थी वे सिर्फ निर्ग्रन्थों के लिये ही थी । वास्तविक निर्विकारि और अनपवादि स्वरूप निम्न लिखे अनुसार है। १. - किसी भी मुमुक्षु ने प्राणान्त होने तक किसी प्राणीको दुःख हो वैसी प्रवृत्ति न करना, न कराना और न दूसरे को वैसा करने की सम्मति देना । २. - किसी मुमुक्षु ने प्राणान्त होने तक असत्य न बोलना, न दूसरे से बलाना और न ही दूसरे को असत्य बोलने की अनुमति देना । ३. - किसी मुमुक्षु ने प्राण जाने तक दूसरे की वस्तु उसके दिये बिना न लेना, न दूसरे से लिवाना और न ही दूसरे को वैसा करते हुये अनुमति देना । ४. - किसी मुमुक्षु ने प्राण जाने तक अब्रह्मचर्य न सेवन करना, न दूसरे से सेवन कराना और न ही सेवन करने वाले को अनुमति देना । ५. - किसी मुमुक्षुने प्राण जाने तक किसी भी वस्तु पर लेशमात्र भी ममत्व न रखना, न रखाना और न ही ममत्व रखने वाले को वैसा करने में सम्मति देना इन पाचों प्रतिज्ञाओ को जीवन में उतारने के लिये प्रत्येक प्रतिज्ञा को पूर्णरूप से पालन करने के लिये वे स्थविर-मुमुक्षु अरण्यमें, बागों में, उद्यान में, गांव बाहर की वसतियों मे या खण्डहरो में निवास करते थे। जहां तक बन सकता तपस्वी निराहारी रहते थे। आहार लेना पडता तो बिलकुल रूखा सूखा ग्रहण करते, सो भी शाक-व्यंजन रहित नीरस निर्दोष और परिमित लेते
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy