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________________ सूत्र ग्रन्थ नित्य मादक भोजी साधुओं को मादक भोजी युवती और विधवाओं के टोले में रहकर उपधान की क्रिया कराने की अनुमति दे सकते हैं ? वर्तमान समय में तो उन्हीं सूत्रों को मानने वाले पंन्यास और आचार्य तीन तीन सौ एवं चार चार सौ स्त्रियों के यूथ में यह क्रिया करा रहे है जिसे हम धर्म मानते हैं। कैसी शिष्टता ? कैसी शील समिति ?? और कैसा भयंकर छिपा हुवा धार्मिक अनाचार है ? जो चैत्यवासियों पर स्त्री परिचय का बारम्बार आक्षेप श्रीहरिभद्रसूरि ने अपने सम्बोध प्रकरण में किया है, उसका नमूना इस उपधान पद्धति में हमें प्रत्यक्ष देख पड़ता है, इससे मैं दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूँ कि यह रीति उनकी रासस्थलों भी हो !!! स्थानाअंग सूत्र में एक जगह सूत्रपढ़ाने के कारण बतलाते हुए लिखा है, कि पंचहि ठाणेहिं सुत्त वाज्जा त जहा - १ सगहट्ठाए, २ उवसग्गहट्ठाए, ३ निज्जरटुए, सुते ४ वा में पज्जवयाए भवस्तति सुत्तस्स वा अव्वेचिछत्तिणयट्ठताए, (लिखित पाठ०६८-६६ । भाडारकर । इस उल्लेख में ज्यों सूत्र पढ़ाने के अन्य कारण बतलाए हैं त्यों उपग्रह को भी कारण कोटि में रक्खा है। उपग्रह के अर्थ को स्पष्ट करते हुये टीकाककारने बतलाया है कि 'जो आहार, पानी और वस्त्र आदि को पैदा करने में समर्थ हों उन्हें सूत्र पढ़ाकर उपग्रहित करना, यहाँ पर आप देख सकते हैं कि यह उल्लेख तो बिलकुल स्पष्टतया गृहस्थियों के ही लिये लिखा गया है, गृहस्थी की आहार, पानी और वस्त्र आदि पैदा करके साधुओं को देते हैं, वे ही अपने पसीने की कमाई से साधुओं का पोषण कर रहे है अत सूत्रकार तथा टीकाकार साधुओं को बदले की नीति की सूचना करते हैं कि वे गृहस्थों को सूत्र पढाकर उपग्रहित - आभारी करें। यह बात सर्वया स्पष्ट होते हुये भी वर्तमान में श्रावकों के धन से पोषित होने वाले निर्ग्रन्थ (१) महाशय श्रावकों को कैसा बदला दे रहे हैं यह बात आप और मुझसे छिपी हुई नहीं है। इससे बढ़कर और भी ऐसे अनेक प्रमाण मेरे देखने में आये हैं जो सीधे तौर से या रूपान्तर से श्रावकों की सूत्राधिकारिता को सूचित कर रहे है, परन्तु स्थान संकोच के कारण उन सबका यहाँ पर उल्लेख न करके मैं इस मुद्दे को यहाँ ही समाप्त करता और साथ ही यह बात सप्रमाण कहे देता हूँ कि श्रावकों को सूत्र पढने के लिये जो निषेध किया गया है वह अयुक्त है, अप्रमाणिक है, अविहित है और सर्वथा श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध है । प्रिय पाठको । अन्त में मैं इतना कहता हूँ कि मैने इस प्रस्तुत निबन्ध में अपने चारों ही मुद्दों को यथामति और यथाशक्ति आपके समक्ष रखने का प्रयत्न किया है और साहित्य-विकार से वर्तमान में हमारी क्या स्थिति हुई है यह भी यथामति 111
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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