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________________ भावेन जिनप्रतिमाना नग्नत्वं विहितम् । श्वेताम्बरेण स्वयं वस्त्रधारित्वाद् वस्त्रचिन्हं कृतम् दिगम्बरेण स्वयं नग्नत्वात् नग्नत्वमेव ।। ६८ ।। अथ मुग्धजनप्रत्यायनाय तच्चिन्हमाह-येन कारणेन विवादे समुत्पन्ने पल्लवचिन्हं प्रतिमास संवृत्त तेनैव कारणेन संप्रतिप्रमुखप्रतिमानां विवादात् पूर्वकाल भविनीनां त्रिखण्डाधिपति संप्रतिनृपप्रभृति निमापितानां जीर्ण प्रतिमानां पल्ल्वाक्डनं अञ्चल चिन्हं नास्ति न विद्यते, अस्ति विद्यते पुनः सांप्रतीन प्रतिमानां आधुनिक जिनप्रतिमाना पल्लवचिन्हमिति साप्रतीन तत् x उज्जयन्त गिरिमाश्रित्य दिगम्बरैः सह विवाद कालात् ।। ६९ ।। अथ विवाद कालात् पूर्व किभासीत्? तदाह-पूर्व विवादात् पूर्वकालं जिन प्रतिमानां नैव नग्नत्व, नाऽपि च पल्ल्वबकोऽञ्चलचिह्नम्, तेन कारणेन जिन प्रतिमानां उभयेषा श्वेतामभर - दिगम्बराणां भेदो भिन्नत्व न संभूतो नासीत् सद्दश आकार आसीत् ।। ७० ।। (प्रवचनपरीक्षा - लि० पा० ३७-३८) कहा जाता है कि गिरनार पर्वत किस की मालकीयता का है इस सम्बन्ध मे श्वेताम्बर और दिगम्बरो के बीच एक दफा कलह उत्पन्न हुआ था। उ पर्वत पर मंदिर और मूर्तिया सब समानाकार होने से इससे पर्वत पर मालकीयत किस की है इस विषय में निर्णय होना अशक्य था । यात्रा और पूजा के लिये दोनो सम्प्रदाय के लोग उस पर्वत पर बहुत समय से आया जाया करते थे, पर्वत का स्वामित्व किस सम्प्रदाय का है इस बात का शीघ्र निर्णय नही हो सकता या । इस दुर्गम निर्णय के लिये श्वेताम्बरों के कायोत्सर्ग के प्रभाव से शासनदेवी प्रगट हुई और उसने फैसला किया? कि इस तीर्थ का स्वामित्व श्वेताम्बरो का है। अभी तक दोनो सम्प्रदाय की मूर्ति का आकार और पूजा का प्रकार एक सरीखा होने से फिर भी ऐसा कलह देने का भय था, इससे श्वेताम्बर सघ की ओर से इसके बाद बनाई गई प्रत्येक जिन प्रतिमाक पैर के पास वस्त्र की पट्टी का निशान कराया गया था। यह देखकर इसी भय से दिगम्बरो ने भी अपने अधिकार मे आई हुई प्रत्येक प्रतिमा पर नग्नता का चिन्ह बना दिया * श्वेताम्बरो ने स्वय वस्त्रधारी होने से प्रतिमाओं को भी वस्त्रधारी बनाई थी और दिगम्बर स्वय नग्नता के हिमायती थे अत: उन्होने अपनी प्रतिमाओ को नग्न रक्खी थी। मूर्ति के सम्बन्ध मे वस्त्र और नग्नता का विवाद इसी समय से प्रारंभ हुआ था। इससे पहिले समय की प्रतिमाओं मे *यदि आज श्रीवर्धमान स्वामी भाई विद्यमान होते तो श्वेताम्बरी उन्हे वस्त्र पहनाते, स्थानकवासी भाई तदुपरान्त मुखपर मुख पत्ती बाधने का आग्रह करते और दिगम्बरी महानुभाव नग्न ही रखने का हट करते। परन्तु यह ठीक ही हुआ कि उस महापुरूष की निर्वाण हो गया। 103
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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