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________________ रक्खी। मैं मानता हूँ कि चैत्यवास हुये बाद मुनियो अन्तिम तीन चार उद्धार हुये हैं तथापि वे अभी तक अपने मूलमार्ग पर आये हुये मालूम नहीं देते, तुरन्तु धीरे २ निम्नगा के समान वे निम्न प्रवाह में ही बहे जा रहे हैं और कितने एक झगडे श्रीवर्धमान के नाम पर चढ़ाकर हमें भरमा रहे हैं । चौथ के शौकीन भक्त कहते हैं भगवान वर्धमान स्वयं कथन कर गये है कि मेरे बाद अमुक वर्ष मे कालक सूरि होंगे और पंचमी की चौथ करेंगे अतः चैथ को छोड़कर भगवान की आज्ञा भंग न करनी चाहिये। पंचमी के शौकीन भक्त कहते हैं कि प्रथम से तो पंचमी ही थी अत पचमी को ही मानना चाहिये। यदि इस विवाद के लिये इतिहास की राय ली जाय तो वह स्पष्टतया जाहिर करता है कि इस विषय में जो परमयोगी वर्धमान का नाम लिया जाता है वह सर्वथा निर्मूल बात है और यह मात्र अपने पक्ष को महान् पुरूष के नाम पर चढ़ाकर कमाखाने की कलाके सिवा अन्य कुछ भी नही है । वेदिको का यह पुराने में पुराना ऋषि मचमी का त्यौहार है। उस त्यौहार के उत्सव के अनुसार जैनियों ने भी मुनियों की स्थायिस्थिति के ( चातुर्मासिक स्थिति के ) प्रारंभ काल की निश्चित मर्यादा बतलाने के लिये उसे पर्वदिवस रूप से माना हुआ है अतः इतिहास तो रूढ परम्पराकी दरकार न करके पचमी के पर्व को स्वीकारने मे ही अपनी प्रामाणिकता समझता है। एक यह भी बात है। कि जिस कारण से पचमी की चौथ की गई थी अब वह कारण प्रतिवर्ष नही होता, इससे किसी मजबूत कारण सिवा पचमी की प्राचीन परम्परा का लोप करना यह भी एक प्रकार का मर्यादा भजक आग्रह है । दिगम्बर सप्रदाय भी अपने इस पर्व को पचमी से प्रारम्भ करके इसी बात की पुष्टि करता है। तथापि कदाचित् इस युग के बन्धु (साधु और श्रावक ) इस स्पष्ट एव सादे सत्य की ओर न झुक सकते हो तो भले ही अपनी इच्छानुसार वर्ते परन्तु इस के लिये कलह करके वीर के पुत्र पन का वीरत्व न दर्शावे इतना ही बस है। इसी तरह अधिक मास का क्लेश भी निर्मल है और यह लौकिक है। जब हम लौकिक पर्वो को स्वीकार करते हैं तो फिर उनकी व्यवस्था भी उसी के आधार से करनी चाहिये । अत इस अधिक मास का निराकारण भी लौकिक रीति से शीघ्र ही हो सकता है, तथापि ममत्बवश ऐसी साधारण बात मे भी महापुरूष वर्धमान के नाम से उनके प्रवचन को लाछित करके न जाने ये आडम्बरी लोग क्या करना चाहते है? इसी प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बरो मे जो मूर्तिपूजा से लगता भीषण झगडा चल रहा है उसका मूल कारण भी ये दोनों पक्ष के कुलगुरू ही हैं। मूर्तिपूजा का उद्देश देखने पर यह बात सम्भवित नहीं होती कि मूर्ति को कन्दोरा होना ही चाहिये, मूर्ति को आँखे 100
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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