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________________ ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ?] [ ७१ तीनो ही भाषा ग्रन्थो मे ऐलक के लिए बैठा भोजन लिखा है। साथ ही दौलत क्रिया कोश में अर्यका के लिये भी बैठे भोजन करने का विधान किया है । भगवती आराधना अध्याय १ गाथा ८३ की वचनिका में पण्डित प्रवर सदासुख जी सा० ने भी आर्यिका के लिये बैठकर माहार ग्रहण करने की बात लिखी है। आर्यिका उपचार महाव्रती होती है जबकि क्षुल्लक-ऐलक पचम गुणस्थानी अणुवती ही होता है ऐसी हालत मे जब आर्यिका तक बैठा भोजन करती है तो क्षुल्लक-ऐलक खडे भोजन कैसे कर सकता है ? यह तो साधारण बुद्धि भी सोच सकता है । खडा भोजन तो निर्ग्रन्थ महाव्रती साधु ही करता है इसीलिए साधु के ही २८ मूलगुणो मे 'स्थिति भोजन' नाम का एक मूल' गुण बताया है, अन्य के नही। स्त्रियो मे क्षुल्लिका और आर्यिका पद ही होता है ऐलिका पद नही। प० भूधरदास जी ने एक नई और बात लिखी है। वे लिखते हैं कि-मुनि जो पाणिपात्र में आहार करते हैं वे अजुली जोड कर करते है परन्तु ऐलक अजुली जोड कर नहीं करते। वह तो एक हाथ पर धरे हुए ग्रास को अपने दूसरे हाथ से उठा कर खाता है । न मालूम भूधरदास जी ने यह बात किस मआधार से लिखी है। सम्भव है कि यह ठीक हो क्योकि इस विषय के ग्रन्थो में सामान्यरूप से पाणिपात्र आहार का उल्लेख मिलता है। दोनो ही तरह को पाणिपान कह सकते हैं । विद्वानो को इसकी खोज करनी चाहिए। प० भूधरदास जो इस स कथन को सिद्धात के अनुसार लिखा बताते है । यहां पर एक आक्षेप का समाधान करना अनुचित न होगा, कुछ भाई कहते हैं कि-"अगर ऐलक मुनि को तरह
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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