SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐलक चर्या, क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ?] [ ६६ कहते हैं उसे ही शास्त्रकारो ने क्षुल्लक नाम से भी लिखा है। स्वय इसी ग्रन्थ मे इसके अगले ही श्लोक में इस रहस्य को खोल दिया है । यथा क्षौरं कुर्याच्च लोच वा पाणौ भुक्तऽथ भाजने। - कौपीनमानतोऽसौ क्षुल्लक परिकीर्तितः ॥१५६ ॥ ___ अर्थ-क्षौर कराओ चाहे लौच, हाथ मे भोजन करो चाहे पात्र मे वह कोपीन मान का धारी क्षुल्लक कहा जाता इससे स्पष्ट है कि यहाँ उस ऐलक को भी क्षुल्लक कहा गया है जो लौंच करता है, करपात्र मे भोजन करता है और कौपीन रखता है। इसलिए इस ग्रन्थ मे जिस क्षुल्लक के लिये स्थितिभोजन करना मना किया है उसे ऐलक भी समझना चाहिए। यह कथन उस वक्त का है जवकि ११ वी प्रतिमा के २ भेद नहीं थे एक ही था और उसे क्षुल्लक (टोका में उत्कृष्ट श्रावक) ही कहते थे इसी से उसके एक वस्त्र ही बताया है। आज यह एक वस्त्र ऐलक के माना जाता है और क्षुल्लक के दो वस्त्र ( कोपोन और उत्तरीय ) माने जाते हैं। " यह तो हुई सस्कृत प्राकृत ग्रन्थो की बात । अब हम इसकी पुष्टि में भाषा ग्रन्थो के भी तीन प्रमाण लिख देते हैं (१) प० बुधजन जी कृत-तत्त्वार्थ बोध पृ० १५६ मे लिखा है ___ अईलक महापुनीत, केश लौंचे निज करते । ले करपान अहार, बैठि इक धावक धरते ॥ २॥
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy