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________________ ६६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ ऊपर के इन तमाम ग्रन्थो मे उपविश्य, समुवइट्ठो, समुपविष्ट निविष्टवान्' वाक्य से साफतौर से ऐलक के लिये बैठा रहकर भोजन करना लिखा है । ,, यहाँ इतनी वात और कह देना योग्य है कि ग्यारहवी प्रतिमा का जो स्वरूप ग्रन्थो मे मिलता है वह एक प्रकार से नही पाया जाता । इसकी सज्ञा भी एक रूप मे नही मिलती । कही इसे उद्दिष्टविरत, कही उत्कृष्ठ श्रावक, और कही इस समूची हो प्रतिमाधारी को क्षुल्लक कहा गया है | कही इसके दो भेद किये है -१ प्रथमोत्कृष्ट और २ द्वितीयोत्कृष्ट । कही प्रथमोत्कृष्ट के भी दो भेद किये है- १ एक भिक्षा नियम और २ अनेक भिक्षा नियम । इतना सब कुछ होते हुए भी प्राचीन ग्रन्थो मे कही ऐलक नाम की उपलब्धि नहीं होती । ऐलक नाम की कल्पना वहुत ही पीछे की जान पडती है । प्रचलित मे जो क्षुल्लक और ऐलक कहलाते है वे क्रम से प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट के भेदो मे गणना किये जा सकते हैं । साधारणतया क्षुल्लक और ऐलक की चर्या में यह भेद है कि क्षुल्लक क्षौर ( हजामत ) कराता है, एक वस्त्र ( पछेवडी ) रखता है, और पात्र मे भोजन करता है । किन्तु ऐलक केशो का लौच करता है, कौपीन मात्र वस्त्र रखता है और करपात्र भोजी है । कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि ११ वी प्रतिमा के किसी भी भेद प्रभेद वाले के लिए बैठे भोजन करने के सिवाय आगम मे कही खडे भोजन का कथन नही है । सागारधर्मामृत, धर्मसग्रह - श्रावकाचार और गुणभूषणकृत श्रावकाचार मे पहिले प्रथमोत्कृष्ट श्रावक के लिए बैठे भोजन का वर्णन किये बाद द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की केश लुचन आदि उन क्रियाओ का वर्णन किया है जो प्रथमोत्कृष्ट
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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