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________________ ६४ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ 'कुर्यादेव चतुपर्व्यामुपवास चतुविध' ॥ ३६ ॥ अ० ७ - आशाधरकृत सागारधर्मामृत 'तुविद्योपवास च कुर्यात्पर्वसु निश्चयात् ॥ ६३ ॥ अ०८ मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार इन चारो उद्धरणो मे 'निश्वयात्' आदि वाक्यों मे इस बात का बहुत अधिक जोर दिया गया है कि वह निश्चय से चागे पर्वतिथियों मे उपवास करे ही । स्वयं आशाधर ने स्वोपज्ञ टीका मे उक्त श्लोका के कुर्यादेव' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि कुर्यादेव अवश्य विदध्यादसौ । क उपवासमनशनं । कि विशिष्ट चतुविद्य चतस्रोविधा आहारास्त्याज्या यस्मिन्नसौ चतुविधस्तं । चतुष्प मासि मासि द्वयोरण्टम्योर्द्वयोश्चतु श्यो । ग्यारहवी प्रतिमा में व्रत एक ऐसी ऊँची हद तक पहुच जाते हैं कि नीचे की प्रतिमाओ के व्रत विना कहे ही उनमे अन्तर्लीन हो जाते है किन्तु प्रोपघोपवास प्रतिमा का वहाँ अन्तर्भाव नही होता इसलिए उसे यहाँ खासतौर से अलग कहा है । मुनि और ऐलक में भेद डालने वाली यह तो हुई एक वात । अब हम एक दूसरी वात और बतलाते है । वह यह है कि आजकल जो ऐलक खडे आहार लेते है यह विधान मुनियो के लिये है ऐलको के लिए नही । इस विषय के लगभग सभी ग्रन्थो मे १९ वी प्रतिमाधारी को केवल बैठे भोजन करने
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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