SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ५६ हो जाते है । यहाँ तक की उसमे सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यञ्च तक पैदा हो सकते हैं । परन्तु इसका मायना यह नही है कि बैल के कलेवर मे बैल जैसे पचेन्द्रिय सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक जीव पैदा होते हैं । ऐसा कोई आर्ष प्रमाण हो तो बताया जावे । मनुष्य के कलेवर मे लब्ध्यपर्यान्तक मनुष्यो का पैदा होना ऐसा तो शास्त्रो मे स्पष्ट कथन मिलता है । परन्तु जिस जाति के तिर्यंच का कलेवर हो उसमे उसी तियंच जाति के लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म जीव पैदा होते हैं ऐसा कथन नही मिलता है । तथा जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य नियमत लब्ध्यपर्याप्तक ही होते है । उस तरह सभी सम्मूच्छिम तियंच लब्ध्यपर्याप्तक नही होते वे पर्याप्त भी होते है । इस तरह दोनो मे विषमता होने से यह भी नही कह सकते कि जैसी उत्पत्ति लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यो की है । वैसी ही तियंचो की भी है । यद्यपि आगम मे पचेन्द्रिय तिर्यञ्चो के गर्भज और सम्मूच्छिम ऐसे दो भेद जरूर किये है। पर इसका मतलब यह नही है कि जो बैल, हाथी घोडे गर्भजन्म से पैदा होते हैं वे ही सम्मूच्छिम भी होते हैं । सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यंच और ही होते हैंजिस जाति के गर्भज तिर्यंच होते हैं उसी जाति के सम्मूच्छिम तियंच नही होते ऐसा कहने मे कोई वाधक प्रमाण नजर नही आता है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ६६ की टीका में प० सदासुख जी ने लिखा है - "मनुष्य तिर्यंचनि के माँस का एक कण मे एतं वादर निगोदिया जीव हैं जो एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक जितने जीव हैं उनसे ताते अन्न जलादिक असख्यात वर्ष भक्षण करे तिसमे जो त्रैलोक्य के अनन्तगुणे है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy