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________________ ५८ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ तक ही मनुष्य भव मे रहता है। इतना ही काल अलब्धपर्याप्तक पचेन्द्रिय सज्ञी-असज्ञी तिर्यञ्चो का है। तदुपरात उन्हे या तो किसी पर्याप्तक मे जन्म लेना पडेगा या अन्य किसी स्थावरादि मे अलब्धपर्याप्तक होना पडेगा । यहाँ प्रश्न अनादि काल से लेकर जिन जीवो ने निगोद से निकलकर दूसरो पर्याय न पाई वे जीव नित्यनिगोदिया कहलाते है । नित्यनिगोदिया जीव पर्याप्तक ही नहीं, वहुत से अलब्धपर्याप्तक भी होते हैं। वहाँ के उन अलब्यपर्याप्तिको ने भी आज तक निगोदवास को छोडा नही है। ऐसी सूरत मे आप यह कैसे कह सकते हैं कि-निगोदिया अलब्धपर्याप्तक जीव अधिक से अधिक निरन्तर अपने ६०१२ क्षुद्रभव लिए वाद उन्हे निश्चय ही उस पर्याय से निकलना पडता है। उत्तर हाँ वहाँ से उन्हे भी अवश्य निकलना पडता है । अलब्धपर्याप्तक पर्याय को छोड कर वे पर्याप्तक-निगोद मे चले जाते है। मूल चीज निगोद को उन्होने छोडी नही जिससे वे नित्यनिगोदिया ही कहलाते है। इसी तरह वे पर्याप्त से अपर्याप्त और सूक्ष्म से बादर एवं वादर से सूक्ष्म भी होते रहते है । होते रहते है निगोद के निगोद मे ही जिससे उनके निगोद का नित्यत्व वना ही रहता है। निगोदिया जीव अलब्धपर्याप्तक अवस्था मे निरन्तर रहे तो अधिक से अधिक सिर्फ ४ मिनट तक ही रह सकते है । क्योकि उनके लगातार क्षुद्रभव ६०१२ लिखे है। जो ३३४ उच्छ्वासो मे पूर्ण हो जाते है। ३३४ उच्छ्वासो का काल ४
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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