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________________ पूज्य पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६६ सारोद्धार अ० ३ श्लोक १२७, अ० ६ श्लोक ४३ ) इस प्रकार उनके कथन परस्पर विरुद्ध होगये हैं। शासन देव पूजा के उनके कथन की अयुक्तता निम्न प्रकार से भी सिद्ध होती है। F (१) उनसे पूर्व वसुनन्दि श्रावकाचार के प्रतिष्ठा प्रकरण में पञ्चपरमेष्ठी के सिवा किसी भी रागी द्वेषी देवो और कुगुरुओ का पूजा विधान नही है, अत आशाधर का कथन पूर्वाचार्यों से विरुद्ध है । (२) वसुनन्दि श्रावकाचार की गाथा ४०४ मे पूजक को अपने मे इन्द्र का सङ्कल्प करना बताया है, तदनुसार आशाधर ने भी मुख्य पूजक मे सोधर्मेन्द्र की स्थापना करना लिखा है । अब मुख्य पजक को सौधर्मेन्द्र मान लिया गया, तो वह यागमण्डल मे अपने से निम्न श्रेणी के देवो की स्थापना कर और ३२ इन्द्रो मे स्वयं अपनी भी स्थापना करके उनकी पूजा कैसे कर सकता है ? अत आशाधर का पञ्चपरमेष्ठी के सिवा अन्य कई देव देवियो की स्थापना कर उनकी पूजा सौधर्मेन्द्र से कराना असङ्गत है इस तरह इन्द्र प्रतिष्ठा का विधान स्वयं उनकी कलम से निरर्थक होकर मखौल सा हो गया है, जबकि वसुनन्दि का कथन सुसङ्गत है क्योकि उन्होने प्रतिष्ठा विधि मे रागी -द्वेषी देवो को स्थान नही दिया है। भगवान के पूजक मे इन्द्र की स्थापना से सिद्ध है कि पूज्य का स्थान इन्द्र से भी ऊँचा होना चाहिए और वे अहंतादि ही हो सकते हैं न कि व्यन्तरादि शासन देव जो इन्द्र से भी निम्न श्रेणी के है । इस पर भी सरागी देवो की पूजा के लिए जब कुछ सज्जनो का दुराग्रह देखा जाता है तो भद्रबाहु चरित ( रत्ननदि कृत ) के निम्नाकित श्लोक पर हमारी दृष्टि जाती है, उसमे
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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