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________________ अलब्धपर्याप्तक और निगोद ] [ ३५ , तो आगम मे लिखा है कि -सबसे छोटा शरीर सूक्ष्म निगोदिया अलब्धपर्याप्तक का होता है। अगर सभी अनब्धपर्याप्तको के शरीरो का प्रमाण एक समान होता तो केवल सूक्ष्म निगोदिया का ही नाम नही लिखा जाता। (देखो त्रि० प्रज्ञप्तिद्वि० भाग पृष्ठ ६१८)। अलब्धपर्याप्तक जीव सूक्ष्म और वादर दोनो तरह के होते है । तथा ये प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति कायिक ही नही किन्तु सभी स्थावरकाय और सम्मच्छिमत्रसकाय के धारी होते है। तथा ये एक श्वास मे १८ वार जन्म-मरण करते है। कितने ही शास्त्रसभा में भाग लेने वाले जैनी भाई यह समझे हुए हैं कि जो १ श्वास में १८ बार जन्म-मरण करते हैं वे निगोदिया जीव होते है। यह उनकी भ्रात धारणा है । एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करना यह निगोदिया जीव का लक्षण नहीं है। यह तो अलब्धपर्याप्तक जीव का लक्षण है । ऐसे अलब्धपर्याप्तक जोव तो केवल निगोद मे ही नही, अन्य स्थावरों और त्रसो मे भी होते है। जहाँ वे एक उच्छवास मे १८ बार जन्म-मरण करते है। इसलिए एक श्वास मे १८ बार जन्म-मरण करना यह निगोदिया का कतई लक्षण नहीं है। किन्तु एक शरीर मे अनन्त जीवो का रहना यह निगोद का निर्वाध लक्षण है। निगोद का ही दूसरा नाम साधारण वनस्पति है जिन्हे अनन्तकाय भी कहते ४ देखिये-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा-उस्सासट्ठारसमे, भागेजो मरदि ण समाणेदि । एक्को fय पज्जत्ती, लद्धि अपुण्णो हवे सो दु॥ १३७ ॥
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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