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________________ ६४२ [* जैन निवन्ध रत्नावला भाग २ गया । सदोष आहार को लेना मुनि के लिये निपिद्ध है। यदि ये दोप गृहस्थो तक ही सीमित होते तो एपणा समिति मे इन को टालने का उपदेश मुनियो को क्यो दिया जाता ? एक उद्दिष्ट ही नही वाकी के १५ उद्गम दोष भी तो श्रावक द्वारा लगते है तो क्या वे भी मुनियों के त्यागने योग्य नहीं है? अन्तराय भी तो परकृत होते है फिर उन्हे भी नहीं टालना चाहिए? किन्तु ऐसी बात नहीं, परकृत होने पर भी दोप तो उन्हे ही लगता है जो इनका उपभोग करते है। जिस तरह विप का उपभोग करने वाले को ही मरण-दुख उठाना पड़ता है उसके बनाने वाले को नही । दोपो का करना गृहस्थ के ऊपर है तो उन्हे टालकर चलना तो साधु के हाथ मे है अगर अपने अधिकार की बात मे भी साधु प्रमाद करता है तो उसका दण्ड साधु को ही भुगतना पडेगा । * पद्मपुराण पर्व ४ श्लोक ६१ आदि मे लिखा है कि भरतजी मुनि के अर्थ बताया भोजन लेकर समवशरण मे गये और वहां मुनियो को जीमने के लिये प्रार्थना करने लगे। ★ मुनिधर्म प्रदीप ( कुन्थुसागर कृत सस्कृत ग्रथ ) पृ० ४४-४५ मे एपणा समिति के वर्णन मे प० वर्धमानजी शास्त्री ने भावार्थ मे अर्ध कर्म और औद्देषिक दोष के लिए इस प्रकार लिखा है जो गृहस्थ अनेक जीवो की विराधना करने वाली जीविका करते हैं उनके यहाँ आहार लेना अध कर्म दोष है । यह दोष पिण्ड शुद्धि को सबसे अधिक नाश करने वाला है ।। किसी देवता वा किसी दीन-दरिद्री के लिए बनाया हुआ माहार ग्रहण करना वा देना भीदेशिक दोप है। (मूलाचार से विल्कुन विरुद्ध कथन हैं और आपत्तिजनक हैं )
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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