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________________ ६३४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ यह अभिप्राय प्रगट किया है कि "वर्तमान के साधु सव उद्दिष्टादि दोषो से युक्त आहार ग्रहण करते है अत. उन्हे चेतावनी दी है अथवा जैनसमाज को यह चेतावनी दी है कि जो साधु उद्दिष्टादि दोप युक्त आहार ग्रहण करते है उन्हे साधु नही मानना चाहिये ।" यद्यपि उस वक्त उद्दिष्ट के विषय मे लिखने का मेरा रच मात्र भी विचार नही था । क्योकि वर्तमान के कतिपय जैनसाधुओ की आहारचर्या और उनको दिये जानेवाले आहारके तैयार करने मे होने वाले गृहस्थो के कारनामे प्राय सभी विचारवानो को खटकने जैसे है । अब आपने जो उद्दिष्ट के विषय मे अपने विचार प्रगट किये है वे भी मुझे आगमानुकूल नजर नही आते है । आपने जितना भी लिखा उसे देखने पर कुछ हमको यही आभास हुआ कि वर्तमान मे मुनियो की जैमो प्रवृत्ति चल रही है उसे ही श्रेष्ठ और शास्त्रोक्त सिद्ध करना । यही आप का ध्येय है । किन्तु आप इसमे पद-पद पर स्खलित होते चले गये है । यो तो आपने अनर्गल ढंग से बहुत सारा लिखा है । नीचे हम उसका सारांश देते हुये समीक्षा लिखते हैं (१) आपने लिखा उद्दिष्टादि दोष सूक्ष्म दोष है । प्रायश्चित्त के योग्य नही हैं । समीक्षा आपने आदि शब्द देकर उद्दिष्ट ही नहीं अन्य उद्गमादि सभी दोषों को सूक्ष्म दोष बता दिया है । और ये प्रायश्चित्त के योग्य नही ऐसा लिखकर तो बडा ही गजब किया है। इसके लिये आपने मूलाचार का प्रमाण दिया परन्तु ग्रंथकार का
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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