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________________ दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ] [ ६१५ कैसे करते, क्योकि ग्रथो मे जिनेन्द्र भक्ति से प्रेरित होकर पशुओ तक ने भी तो पूजा की है जिसमे मेढक सूवा और हाथी की पूजा की कथा तो प्राय बहुतो ने सुनी होगी, सूवे ने तुम्हे आनि के फल आम चढाया, मेढक ले चला फूल कमल भवित का भाया ।।२२।। इन सबका जव शाति के साथ गहरा विचार किया जाता है तो यही ध्यान में आता है। कई भाई ऐसा भी कहते हैं कि अचित्त पूजा सचित त्याग प्रतिमा वाले को करनी चाहिये यह भी बात विचार करने पर ठीक नहीं बैठती, क्योकि ऊपर मूलाचार की कारिका मे ऐसा कोई विधान नहीं पाया जाता कि जो कोई खास व्यवित के ही लिए नियत हो। दूसरे ग्रन्थो मे भी नहीं पाया जाता कि पाचवी प्रतिमा से नीचे वालो को अचित्त पूजा करने का विरोध किया हो। इस तरह जब सचित्त-अचित्त दोनो पूजाओ की स्पष्ट आज्ञा है। तो फिर इससे यही फलितार्थ निकलेगा कि जिसको जैसा सुभीता हो, देश काल के अनुसार जैसा ठीक वैठता हो, साथ ही हिंमा का भी बचाव बिना किसी कठिनता के हो जाता हो उसी विधि से हठ छोडकर जिन पूजा मे प्रवर्तना चाहिये । दोनो पूजाओ की उपयोगिता मे जब हम विचार करते हैं तो हमारी बुद्धि मे बनिस्पत सचित्त पूजा के अचित्त पूजा ही इस समय सर्वश्रेष्ठ जचती है पूजा से सम्बन्ध रखने वाले पूज्य,पूजक पूजा और पूजाफल पर यदि विचार किया जाये तो सर्व प्रकारेण इस समय अचित्त पूजा ही उत्तम है । (सचित्त पूजा तो पशु-पक्षी मूर्यो के लिए है-मनुष्यो के लिए नहीं)। (१) पूज्य का विचार करे तो वे तो रागद्वेष रहित है उन्हे हमारे सचित्त अचित द्रव्यो से कोई सरोकार ही नहीं,
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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