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________________ ६१२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ देखिये अहिंसा के विषय मे जैनाचार्यों की क्या आज्ञा हैजीवनाणेन विना व्रतानि कर्माणि नो निरस्यंति । चंद्र ेण विना नक्षंर्हन्यन्ते तिमिर जालानि । ["अमितगति" ] धर्ममहिसा रूपं सशृण्वतोऽपि ये परित्यक्तम् । स्थावर हिंसामसहास्वस हिसा तेऽपि मुचतु ॥ सूक्ष्मं भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिसने न दोषोऽस्ति । इतिधर्ममुग्ध हृदयेनं जातु मृत्वा शरीरिणो हिस्याः ॥ [ अमृतचन्द्राचार्यं ] अर्थ - जीवरक्षा के विना व्रतधारण कर्मो को नष्ट नही कर सकते जैसे चन्द्रमा के विना नक्षत्र अधकार को दूर नही कर सकते | अहिंसा रूप धर्म को सुनकर भी जो स्थावर हिंसा को त्यागने के लिए असमर्थ हैं वे भी त्रस हिंसा को तो छोडें । भगवान् का धर्म बडा सूक्ष्म है, धर्म के अर्थ हिंसा होने मे कोई दोष नही है इस प्रकार धर्म मे सुग्ध चित्त वालो को आचार्य कहते है कि धर्म के अर्थ भी प्राणी नही मारने चाहिये । इन सब विवेचनो से आप ही सिद्ध हो जाता है कि हमारी तमाम क्रियायें क्या जप, क्या तप, क्या व्रत सब यदि अहिंसा की उन्नति करने में सहायक हो तो उपादेय हैं नहीं तो व्यर्थ है । आज हम यदि जैनियो की कृति देखते है तो बिल्कुल इससे उल्टी पाते हैं । यद्यपि जैनियो को अपने व्यापारादि कार्य या भोगोपभोगो के जुटाने मे भी अहिंसा का कुछ न कुछ ख्याल जरूर रखना चाहिये मगर इससे भी ज्यादा धार्मिक कार्यो में
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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