SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधुओं की आहारचर्या का समय ] [ ६०१ विलक्षण प्रतिभा के नमूने है । जब दात्ता इतने वक्त तक आप खुद भूखा रहकर मुनि को जिमाता है और फिर आप जीमता है तो क्या यह आपके दिमाग मे भक्ति नही है । उत्तम भक्ति वह कहलाती है जो कष्ट सहकर भी की जावे । आराम की भक्ति तो कोई भी कर सकता है । और दाता जब अपने खुद के अर्थ बने आहार मे से अच्छा से अच्छा प्रासुक आहार पात्र को दिये बाद आप भोजन करता है तो ऐसी हालात मे यह सवाल ही पैदा नही होता कि वचाखुचा आहार मुनिको दिया जाता है । वचेखुचे को तो खुद दाता जीमता है । आपने लिखा कि- " मध्याह्न तो आराम करने का समय है । उस समय की प्रचंड गर्मी मे तो सभी छाया ढूंढते है, वह वक्त भिक्षा का कैसा ? उत्तर मे निवेदन है कि जैनमुनि होकर भी आराम और छाया ढूढने का प्रयत्न करते हैं, तो होचुकी मुनिवृत्ति ? छाया ढना तो दर किनारे रहा जैनमुनि तो दोपहरी की प्रचण्ड गर्मी मे आतापन योग धारणा करते हैं । उनकी सिंहवृत्ति होती है, अधिक से अधिक कष्ट सहने मे सिंह की तरह शूरवीर रहते है कभी कायरता नही लाते । ( देखो आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक १६० वी ) पूर्व लेख में मैंने मनुस्मृति का प्रमाण दिया था । उसपर चूडीवाल जी पूछते हैं कि - "यहां मनुस्मृति के प्रमाण देने की क्यो आवश्यकता हुई ?" इसका कारण वही पर बता दिया था। फिर भी यहाँ बताता हू कि मूलाचार टीका मे लिखा ( यह उद्धरण ऊपर दिया हुआ है ) है कि -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy