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________________ ५.० ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ तैश्चारित्रहीनै पुन कृता । न परमार्थ जानभिरिति । चर्याशुद्धया स्तोकमपि क्रियते यत्तपस्तच्छोभनमिति । फिर इसके आगे की गाथा मे लिखा है किकरल कल्ल पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य । ण य खमण पारणाओ बहवो बहुसो बहुविहोय ॥४॥ अर्थ-भिक्षाशुद्धि के बिना जो बहुत से बहुत प्रकार के बहुत बार उपवास पारणे करता है वह अच्छा नहीं है । इससे तो वह अच्छा है जो रोज-रोज आहार करता है किन्तु परिमित और अध कर्मादिदोष रहित आहार लेता है। ऊपर भिक्षाशुद्धि का कथन करते हुए भिक्षा काल मे भोजन लेना भी भिक्षा-शुद्धि में शुमार किया है। आगम मे साधुओ के भिक्षा लेने का समय कौनसा बताया है ? इस लेख मे नीचे हम इसी की चर्चा करते हैं। मुनियो का आचारविषयक प्रधान ग्रथ मूलाचार है। उमके पचाचाराधिकार की गाथा १२१ की वसुनन्दिकृत सस्कृत टीका मे यह कथन इस प्रकार लिखा है __सवितुरुदये देववदना कृत्वा घटिकाहयेऽतिकाते श्रुभक्तिगुरुभक्तिपूर्वक स्वाध्याय गृहीत्वा " घटिकाद्वयम प्राप्तमध्याह्नादरात् स्वाध्याय श्रुतभक्तिपूर्वक मुपसहृत्यावसथादरतो मूत्रपुरीषादीन् कृत्वा पूर्वापरकाय विभागमवलोक्य हस्तपादादि प्रक्षालन विधाय कुण्डिका पिच्छिका गृहीत्वा मध्याह्नदेववन्दना कृत्वा पूर्णोदरबालकान् भिक्षाहारान् काकादिबलीनन्यानपि लिगिनो भिक्षाबेलाया ज्ञात्वा प्रशाते धूममुशलादिशब्दे गोचर प्रविशेन मुनि ।"
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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