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________________ ५५८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ठीक, क्योकि जब महिला वर्ग जो कि अधिकतर रगीन-वस्त्र पहनती है उस वर्ग की आर्यिका के लिए ही जब सफेद साडी का विधान है तो पुरुषवर्ग के उत्कृष्ट श्रावक के वस्त्र का रग सफेद होना योग्य ही दे। यह कहना कि मेधावी ने रक्तकौपीन सग्राही' लिखकर उत्कृष्ट श्रावक की लगोट लाल रंग की बताई है। किन्तु यह पाठ अशुद्ध है। शुद्ध पाठ 'रिक्त कौपीन सग्राही' होना चाहिए। जिसका अर्थ होता है बिना चादर के खाली (केवल मात्र) लगोट का धारी। वास्तव मे यही पाठ मेधावी ने लिखा है। क्योकि इन्होने इस प्रतिमा का सारा वर्णन आशाधर के अनुसार किया है तब वे लंगोट के रग के विषय में ही भिन्न कथन कैसे कर सकते है। इन मेधावी ने प्रथमोत्कृष्ट की चादर लगोट भी तो सफेद रंग की लिखी है तब वे द्वितीयोत्कृष्ट के लिए लालरग की लगोट कैसे लिख सकते है ? आशाधर ने प्रथमोत्कृष्ट श्रावक (आज के क्षुल्लक) के लिए कोपीन और उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो वस्त्रो का विधान किया है जबकि वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट के लिए सिर्फ एक वस्त्र (शाटक) का ही विधान किया है। जब उत्कृष्ट श्रावक अनेक घरो से भिक्षा प्राप्त करता है तो उसकी नवधा भक्ति की जाने का तो सवाल ही नहीं रहता है। फिर आशाधर जी ने तो ११ वी प्रतिमा के स्वरूप के वणन मे ही इस बात का खुलासा कर दिया कि सभी श्रावक परस्पर मे इच्छाकार करे। देखो सागारधर्मामृत के अ०७ का श्लोक ४६ वा । यही नहीं आ० श्री कुन्दकुन्द ने भी सूत्र
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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