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________________ श्रावक की ११वीं प्रतिमा ' ५५३ वसुनन्दि के इस कथन मे देखेंगे कि - पूर्वग्रन्थो मे इस प्रतिमाधारी के लिए जिस भिक्षा भोजन का कथन किया गया या उसका इन्होने अच्छा स्पष्टीकरण किया है और इस प्रतिमा के २ भेद करके पूर्व प्रथो मे जो चर्या समस्त ११६ी प्रतिमा की प्रतिपादन की थी उस सब का कौपीन के अतिरिक्त इन्होंने प्रथम भेद मे समावेश कर दिया है । और दूसरे भेद की एक नई कल्पना करके उसके लिये लच करने और मुनि की तरह हाथ मे भोजन जीमने जैसे विधान कर दिये हैं, जिनका उल्लेख पूर्वग्रन्थो मे कही नही है। बल्कि कुन्दकुन्द ने तो वस्त्र धारी को हाथ से भोजन करने का सख्त निषेध किया है जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं । करपात्र में आहार होने के दो तरीके होते है । पहिला तरीका तो यह कि भोजन को अपने एक हाथ मे रखकर उसमे से थोडा-थोडा लेकर दूसरे हाथ से खाते रहना और असुविधा होने पर कभी- कभी पात्र का भी उपयोग कर लेना । ऐसा विधान तो वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट के लिए किया है । और दूसरा तरीका मुनि की तरह आहार लेना अर्थात् दोनो हाथो की जुडी हुई अजुली मे दाता आहार रखता जाये और साघु उसे अगुलियो से उठा उठा कर खाता रहे । यह विधान वसुनन्दि ने द्वितीयोत्कृष्ट के लिए विशेष चर्या वत्ताकर किया है । वही आशय आशाधर ने सागार धर्मामृत अध्याय ७ के श्लोक ४६ मे 'अन्येन योजित' वाक्य लिखकर प्रगट किया है । और वसुनन्दि ने प्रथमोत्कृष्ट का दूसरा विकल्प एक घर भिक्षावाला लिखकर यह बताया है कि उसको चर्याके लिए भिक्षापात्रको लेकर निकलने की भी जरूरत नही है उसे एक घरमे तो आहार लेना है अत वह दाता के घर के पात्रमे ही जीम लेवे । वसुनदि का यह विधान नया है । पूर्व ग्रन्थो से उसका समर्थन नही होता ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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