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________________ श्रावक को ११वी प्रतिमा ] ५५१ क्षुल्लक नाम में क्षुल्लक का अर्थ है निम्न श्रेणी मे रहने वाला । अर्थात् यहाँ से ऊपर एक ही श्रेणी है, वह है मुनिपद उससे नीचे की श्रेणी मे होने के कारण वह क्षुल्लक कहलाता है । ११वी प्रतिमा के भेद करके पहिले भेद वाले को क्षुल्लक कहना यहाँ अभीष्ट नही है । उपर्युक्त ग्रन्थो मे दो भेद किये ही नही है । वहाँ तो सारी ही ११वी प्रतिमाघारी को क्षुल्लक कहा है । उपर्युक्त ग्रथकारो के मत से इस प्रतिमा का धारी न लौच कर सकता है न अजुली जोड कर आहार कर सकता है । मयूरपिच्छी का भी उसके लिये विधान नही है । किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के प्रथम आश्वास मे ( हिंदी अनुवाद पृ० ७१ ) क्षुल्लक के मयरपिच्छी लिखी है । वीरनन्दि ने भी चन्द्रप्रभ काव्य के सर्ग ६ श्लो० ७१ मे क्षुल्लक के यति चिह्न लिखा है । वहाँ यति चिह्न का मतलब मयूरपिच्छी ही जान पड़ता है । ऊपर लिखित ग्रन्थकारो के बाद विक्रम की १२वी शताब्दी मे वसुनन्दि हुये जिन्होने स्वरचित श्रावकाचारकी गाथा ३०१ से ३११ तक मे जो ग्यारहवी प्रतिमा का स्वरूप लिखा है उसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है ११वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक के २ भेद है प्रथमभेद एक वस्त्र ( शाटक) रखने वाला । दूसरा केवल कोपीन का धारी। प्रथम भेदवाला केची या उस्तरे से बाल कटवाता है । मृदुउपकरण कोमल - वस्त्रादि से स्थानादिको के प्रतिलेखन करने मे प्रयत्नशील रहता है । वैटकर स्वयं हाथ से या पात्र मे भोजन करता है । ( स्वय कहने से वह खुद ही पात्र मे यश अपने हाथ में आहार करता है। मुनि की तरह बार २ दाता इसके हाथ में आहार रखता जाये और यह उसे खाता रहे ऐसी विधि इसकी नही है | ) i am
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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