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________________ ५४२ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ श्लोकवार्तिक के ५ वे खड के पृष्ठ ३६४ पर अतिम पक्तियों में आपने ऐसा लिखा है "धातकीखड मे पूर्व मेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत अथवा पूर्वमेरु सम्बन्धी ऐरावत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी भरत का विभाग करने वाले इष्वाकार पर्वत पडे हुये हैं ।" आपका ऐसा लिखना भी हमारी तुच्छ बुद्धि मे ठीक प्रतीत नही होता । धातकीखड में भरत और एरावत क्षेत्र की स्थिति धनुषाकार रूप मे है । जैसे धनुष के बीच मे वाण होता है वैसे ही दोनो ओर दो इष्वाकार पर्वतों के बीच मे पड जाने से दोनो ओर के भरत और ऐरावत के दो-दो विभाग हो गये है । दक्षिण की ओर जो भरतक्षेत्र धनुषाकार था उसके बीच इत्रकार पर्वत के पडने से उसी के दो भाग होकर पूर्वभाग पूर्व मेरु सम्बन्धी धातकी खड का कहलाता है और पश्चिम भाग पश्चिममेह सम्बन्धी धातकीखड का कहलाता है । उसी तरह धातकीखंड मे उत्तर की तरफ के ऐरावत क्षेत्र के बाबत समझ लेना चाहिये । अत धातकीखड मे पूर्वमेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत के बीच में जो आप इष्वाकारपर्वत बताते हैं वह ठीक नही है । किन्तु पूर्वमेरु सम्बन्धी भरत और पश्चिममेरु सम्बन्धी भरत इन दोनो के बीच इष्वाकारपर्वत स्थित है । इसी तरह पूर्व पश्चिम मेरु सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्र के बीच मे इष्वाकार पर्वत स्थित है । आपकी मान्यतानुसार पश्चिम घातकी खड में दक्षिणकी तरफ ऐरावत क्षेत्र और उत्तर की तरफ भरतक्षेत्र का होना व्यक्त होता है, वह उचित नही है ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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